भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"चटनी / जयप्रकाश मानस" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयप्रकाश मानस |संग्रह= }} <poem> </poem>' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
}}
 
}}
 
<poem>
 
<poem>
 +
ग़रीब का मसाला,
 +
पत्थर की सिल पर उगता है।
  
 +
हरी मिर्च की चुभन
 +
लाल मिर्च की आग
 +
नमक का पसीना
 +
और हरे आम का खट्टापन—
 +
सब मिलकर बोलते हैं
 +
हम हैं तेरे अपने
 +
तेरे हिस्से की रोटी को पूरा करते हैं।
  
 +
सिल-लोढ़ा चुपचाप देखता है
 +
हाथों की मेहनत को
 +
जो पसीने से चिकना हो गया है।
  
 +
धनिया की पत्ती हँसती है
 +
नारियल का गोरा मुँह
 +
ग़रीब की थाली में
 +
चाँद बनकर उतरता है।
 +
 +
चटनी ग़़रीब का गीत है
 +
जो सूखी रोटी को
 +
हरा जंगल बना देती है।
 +
 +
वह खाता है
 +
सूखी रोटी में
 +
नदिया की लहरें उमड़ती हैं
 +
वह मुस्काता है ,
 +
जैसे डोंगियों की रंगीन पालें झिलमिलाती हैं।
 +
 +
-0-
 
</poem>
 
</poem>

19:59, 8 जुलाई 2025 के समय का अवतरण

ग़रीब का मसाला,
पत्थर की सिल पर उगता है।

हरी मिर्च की चुभन
लाल मिर्च की आग
नमक का पसीना
और हरे आम का खट्टापन—
सब मिलकर बोलते हैं
हम हैं तेरे अपने
तेरे हिस्से की रोटी को पूरा करते हैं।

सिल-लोढ़ा चुपचाप देखता है
हाथों की मेहनत को
जो पसीने से चिकना हो गया है।

धनिया की पत्ती हँसती है
नारियल का गोरा मुँह
ग़रीब की थाली में
चाँद बनकर उतरता है।

चटनी ग़़रीब का गीत है
जो सूखी रोटी को
हरा जंगल बना देती है।

वह खाता है
सूखी रोटी में
नदिया की लहरें उमड़ती हैं
वह मुस्काता है ,
जैसे डोंगियों की रंगीन पालें झिलमिलाती हैं।

-0-