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"शहरनामा / भावना सक्सैना" के अवतरणों में अंतर

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चाय की भाप, हॉर्न की चीख,
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अख़बार की सरसराहट
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और उड़ती हुई धूल
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हर सुबह की यही शुरुआत
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जैसे हर शहर, नींद झाड़कर
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फिर से अभिनय को तैयार हो।
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पिता की उँगली थामे
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चलता है एक बालक,
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धूप की चादर ओढ़े,
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मासूम भरोसा लिए
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जैसे हर मोड़ पर
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सिर्फ़ सुरक्षा हो-हो इंतज़ार में।
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बगल से गुज़रता है युवा
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कंधे पर बैग, कानों में ईयरफोन,
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चाल में एक अनजानी हड़बड़ी
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जैसे कहीं पहुँचकर
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करना हो ख़ुद को साबित,
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या शायद
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सिर्फ़ साबित करते रहना ही बचा हो।
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फुटपाथ पर चलती है औरत
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तेज़ नहीं, पर ठहरी भी नहीं।
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हर क़दम में
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नापी गई कोई चुप्पी है,
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एक अनकही लड़ाई
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जो उसके झुके कंधों में दर्ज है।
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हर शहर के होते हैं कुछ सपने
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ऊँची इमारतों की खिड़कियों में सजे,
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'मकान ख़ाली है' की पर्चियों के पीछे छुपे,
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कुछ अँधेरे कमरों में दबे आवेदन पत्रों में,
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या थकी पलकों में अटके
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विद्यार्थियों की निगाहों में।
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वे पेड़ों की परछाईं में बैठते हैं,
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कभी पोस्टर बनते हैं,
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कभी बस इंतज़ार करते हैं
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कि कोई ज़ोर से पुकारे।
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वे टूटते नहीं,
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हर सुबह फिर
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किसी कतार में लग जाते हैं
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बस्ते के साथ
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कंधों पर टंगे रहते हैं।
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मोची सड़क किनारे सीता है जूते।
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दीवार पर चिपका है नया विज्ञापन
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"सेल्फ़-लव से बदलो अपनी दुनिया!"
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औरत सोचती है
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क्या सचमुच
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एक पोस्टर से
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बदल जाती है दुनिया?
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उसकी उँगलियाँ
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बस टाँके भरती हैं,
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पर उसकी चुप्पी में
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सैकड़ों सवाल
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सिले जाते हैं।
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पार्क में एक बूढ़ा पेड़ है,
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जिसकी छाया में
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दो बुज़ुर्ग रोज़ बैठते हैं।
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शब्द कम, मौन ज़्यादा बाँटते हैं
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जैसे कोई पुराना रेडियो
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जिसकी आवाज़ धीमी हो चली हो,
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पर धुनें अब भी वही हों।
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हर चौराहा एक-सा लगता है
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भोंपू, धुआँ, भागते वाहन,
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और एक पुलिस वाला
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जो देखता सब है,
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पर जैसे
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कहीं और देखना चाहता है।
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शायद उसने भी उम्मीदें
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जेब की तह में मोड़कर रख दी हैं।
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हर शहर में कोई बच्चा
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आइसक्रीम की दुकान के बाहर रोता है,
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और कोई माँ
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अपनी जेब टटोलती है
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फिर मुस्कुरा देती है,
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जो आँसू नहीं रोकती,
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पर उस क्षण को टाल देती है।
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चेहरे बदलते हैं, नाम बदलते हैं,
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पते और पिन कोड बदलते हैं
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पर शहरों का चेहरा नहीं बदलता।
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हर शहर
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थोड़ी उम्मीद, थोड़ा ताज्जुब,
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थोड़ी दौड़, थोड़ा ठहराव,
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और बहुत सारा दोहराव लेकर
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हर रोज़
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नया होने की कोशिश में
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कितना कुछ बिसरा देता है।
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13:42, 20 जुलाई 2025 के समय का अवतरण

चाय की भाप, हॉर्न की चीख,
अख़बार की सरसराहट
और उड़ती हुई धूल
हर सुबह की यही शुरुआत
जैसे हर शहर, नींद झाड़कर
फिर से अभिनय को तैयार हो।
पिता की उँगली थामे
चलता है एक बालक,
धूप की चादर ओढ़े,
मासूम भरोसा लिए
जैसे हर मोड़ पर
सिर्फ़ सुरक्षा हो-हो इंतज़ार में।
बगल से गुज़रता है युवा
कंधे पर बैग, कानों में ईयरफोन,
चाल में एक अनजानी हड़बड़ी
जैसे कहीं पहुँचकर
करना हो ख़ुद को साबित,
या शायद
सिर्फ़ साबित करते रहना ही बचा हो।
फुटपाथ पर चलती है औरत
तेज़ नहीं, पर ठहरी भी नहीं।
हर क़दम में
नापी गई कोई चुप्पी है,
एक अनकही लड़ाई
जो उसके झुके कंधों में दर्ज है।
हर शहर के होते हैं कुछ सपने
ऊँची इमारतों की खिड़कियों में सजे,
'मकान ख़ाली है' की पर्चियों के पीछे छुपे,
कुछ अँधेरे कमरों में दबे आवेदन पत्रों में,
या थकी पलकों में अटके
विद्यार्थियों की निगाहों में।
वे पेड़ों की परछाईं में बैठते हैं,
कभी पोस्टर बनते हैं,
कभी बस इंतज़ार करते हैं
कि कोई ज़ोर से पुकारे।
वे टूटते नहीं,
हर सुबह फिर
किसी कतार में लग जाते हैं
बस्ते के साथ
कंधों पर टंगे रहते हैं।
मोची सड़क किनारे सीता है जूते।
दीवार पर चिपका है नया विज्ञापन
"सेल्फ़-लव से बदलो अपनी दुनिया!"
औरत सोचती है
क्या सचमुच
एक पोस्टर से
बदल जाती है दुनिया?
उसकी उँगलियाँ
बस टाँके भरती हैं,
पर उसकी चुप्पी में
सैकड़ों सवाल
सिले जाते हैं।
पार्क में एक बूढ़ा पेड़ है,
जिसकी छाया में
दो बुज़ुर्ग रोज़ बैठते हैं।
शब्द कम, मौन ज़्यादा बाँटते हैं
जैसे कोई पुराना रेडियो
जिसकी आवाज़ धीमी हो चली हो,
पर धुनें अब भी वही हों।
हर चौराहा एक-सा लगता है
भोंपू, धुआँ, भागते वाहन,
और एक पुलिस वाला
जो देखता सब है,
पर जैसे
कहीं और देखना चाहता है।
शायद उसने भी उम्मीदें
जेब की तह में मोड़कर रख दी हैं।
हर शहर में कोई बच्चा
आइसक्रीम की दुकान के बाहर रोता है,
और कोई माँ
अपनी जेब टटोलती है
फिर मुस्कुरा देती है,
जो आँसू नहीं रोकती,
पर उस क्षण को टाल देती है।
चेहरे बदलते हैं, नाम बदलते हैं,
पते और पिन कोड बदलते हैं
पर शहरों का चेहरा नहीं बदलता।
हर शहर
थोड़ी उम्मीद, थोड़ा ताज्जुब,
थोड़ी दौड़, थोड़ा ठहराव,
और बहुत सारा दोहराव लेकर
हर रोज़
नया होने की कोशिश में
कितना कुछ बिसरा देता है।
-0-