"उस क्षण से आगे / पूनम चौधरी" के अवतरणों में अंतर
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| + | केवल अनुपस्थिति नहीं है, | ||
| + | वह प्रतिरोध भी है, | ||
| + | वह धैर्य भी है, | ||
| + | और वह आस्था भी है | ||
| + | कि न्याय को | ||
| + | अवश्य समय ही देगा; | ||
| + | ताकि जिस दिन | ||
| + | तुम्हें अपने छल का बोध हो, | ||
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| + | मेरे मौन का असली अर्थ | ||
| + | तुम्हारे सामने | ||
| + | बिना कहे खुल जाए— | ||
| + | जैसे किसी पुराने दर्पण में | ||
| + | अचानक दिखाई दे | ||
| + | वह चेहरा | ||
| + | जिससे तुम बचते रहे हो। | ||
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| + | उस क्षण से आगे | ||
| + | मेरी हार या जीत नहीं, | ||
| + | मेरी मनुष्यता | ||
| + | और मेरे सत्य का संवाद होगा। | ||
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08:06, 17 अगस्त 2025 के समय का अवतरण
मैं जानती हूँ
कब, कहाँ और कितनी बार
मुझसे छल किया गया—
जैसे इतिहास
अपनी भूलों को पहचानता है,
पर उन्हें लिखते समय
थोड़ा सँवार देता है।
मीठे शब्दों की चमक के भीतर
मैंने देखा
छिपी हुई कड़वी मंशा को—
वह मंशा
जो खुद को
समय से ऊपर मानती रही,
जैसे कोई सत्य को
अपने हाथों में बाँध सकता हो।
किन्तु
मैंने चुना मौन—
क्योंकि शब्द
घटनाएँ बदलते हैं,
पर समय—
निष्ठुर,
किंतु सच्चा साक्षी—
जो कभी नहीं बदलता।
समय ही
सबसे सही उत्तर है।
मेरी चुप्पी
भविष्य के किसी पृष्ठ पर
लिखी जाने वाली पंक्ति है,
जहाँ लोग पढ़ेंगे—
कि उपेक्षा भी
कभी-कभी
सबसे सटीक हस्तक्षेप होती है।
बहुतों ने समझा
मैं हार गई हूँ।
पर मेरी चेतना जानती है—
हार और जीत
क्षणिक घटनाएँ हैं।
मैंने चुना
शेष बची मनुष्यता।
और तब-से
अपने भीतर एक स्थान रचा है,
जहाँ मैं
अपनी गरिमा,
अपनी नैतिकता
और अपनी असहमति
सँभालकर रखती हूँ।
वहाँ
मेरा मौन
केवल अनुपस्थिति नहीं है,
वह प्रतिरोध भी है,
वह धैर्य भी है,
और वह आस्था भी है
कि न्याय को
अवश्य समय ही देगा;
ताकि जिस दिन
तुम्हें अपने छल का बोध हो,
उस दिन
मेरे मौन का असली अर्थ
तुम्हारे सामने
बिना कहे खुल जाए—
जैसे किसी पुराने दर्पण में
अचानक दिखाई दे
वह चेहरा
जिससे तुम बचते रहे हो।
उस क्षण से आगे
मेरी हार या जीत नहीं,
मेरी मनुष्यता
और मेरे सत्य का संवाद होगा।
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