"आने वाला कल/ प्रताप नारायण सिंह" के अवतरणों में अंतर
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पर उनमें जीवन न होगा, | पर उनमें जीवन न होगा, |
22:27, 18 अक्टूबर 2025 के समय का अवतरण
एक दिन
धुआँ निगल जाएगा आकाश को,
मिट जाएगी समस्त हरियाली
सर्वत्र दिखेंगे, बस कंक्रीट के जंगल
समुद्र कराहेंगे, कचरे के बोझ तले।
पेड़ों की शाखाएँ
जले बिना ही ठूँठ जाएँगी,
नदियाँ स्वयं की भी
प्यास नहीं बुझा पाएँगी।
आज जहाँ हँसी बसती है,
वहाँ धूल नाचेगी।
अस्तित्वहीन हो जाएँगे
चहचहाहट और रँभाने जैसे शब्द।
तब
मनुष्य के हाथों से छूटकर
धरती करवट लेगी—
उस करवट में
सभ्यता की चादर फट जाएगी।
अत्यन्त सरल चीज़ें
अद्भुत लगेंगी—
एक अन्न का दाना,
एक बूँद जल,
एक बच्चे की हँसी।
शहर खड़े तो रहेंगे,
पर उनमें जीवन न होगा,
सिर्फ आदतें घूमेंगी
जैसे पिंजरे में फँसी परछाइयाँ।
और लोग सोचेंगे—
क्या सचमुच यही नियति है?
कि हर युग अपने ही बोझ से टूटे,
फिर राख से उठकर
वही भूल दोहराए?
धरती प्रतीक्षा करेगी—
किसी और नाम से,
किसी और रूप में
फिर जन्म लेने की।