"तामसी : सान्तहन्ता / पीयूष दईया" के अवतरणों में अंतर
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एक नीला नाम। अनाम। तकलीफ़तपा। ताना सुनता। जनकझिझका। निश्छल। उसे भाग देना नहीं आता, न जानना। अबोध। अथक तुतलाता। गूँथता अभय। जीना। ककहरा सीखता। बीतते से बिंधा। सन्धिरेशों से बुना। प्रदत्तपारपाता। पारा-पारा पलता। अपारदर्शी। वहनधारी। पहले-पहल गधे की ढेंचू-ढेंचू करता अब लिखता है ढेंचू-ढेंचू। हुआँ-हुआँ करते साबितनवीसों के दिये घावों से घमासान करता। घायल। जुगनू-जमूरा। हेकड़ी हाँकता न रस्मी रेवड़ चराता। कक्षापूत। चंदोबाचाहता। जुगतजाल से बचता बाल-बाल। कल से आया कल को जाता कल-कल करता विकलवासी। गले कुछ भी उतर नहीं सका सो सहमति का स्वांग भरने से इनकार करता। दृश्यालेख से ओझल। दर्ज़-दरारों से रिसता हस्बे मामूल। ताड़-पत्रों पर मार्ग तलाशता सान्तहन्ता। | एक नीला नाम। अनाम। तकलीफ़तपा। ताना सुनता। जनकझिझका। निश्छल। उसे भाग देना नहीं आता, न जानना। अबोध। अथक तुतलाता। गूँथता अभय। जीना। ककहरा सीखता। बीतते से बिंधा। सन्धिरेशों से बुना। प्रदत्तपारपाता। पारा-पारा पलता। अपारदर्शी। वहनधारी। पहले-पहल गधे की ढेंचू-ढेंचू करता अब लिखता है ढेंचू-ढेंचू। हुआँ-हुआँ करते साबितनवीसों के दिये घावों से घमासान करता। घायल। जुगनू-जमूरा। हेकड़ी हाँकता न रस्मी रेवड़ चराता। कक्षापूत। चंदोबाचाहता। जुगतजाल से बचता बाल-बाल। कल से आया कल को जाता कल-कल करता विकलवासी। गले कुछ भी उतर नहीं सका सो सहमति का स्वांग भरने से इनकार करता। दृश्यालेख से ओझल। दर्ज़-दरारों से रिसता हस्बे मामूल। ताड़-पत्रों पर मार्ग तलाशता सान्तहन्ता। | ||
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तन्वंगी तामसी के तलुओं में बहते बहेलिये बादलों को अपने सफ़ेद हो चले बालों से आहुति देता। बिना उम्मीद के चारा डालने को समझने लगता। सबसे ऊँचे दरख़्त पर झीने-से सरसराता। बिना चाप कि राल टपकते देख सके। | तन्वंगी तामसी के तलुओं में बहते बहेलिये बादलों को अपने सफ़ेद हो चले बालों से आहुति देता। बिना उम्मीद के चारा डालने को समझने लगता। सबसे ऊँचे दरख़्त पर झीने-से सरसराता। बिना चाप कि राल टपकते देख सके। | ||
01:29, 13 दिसम्बर 2008 के समय का अवतरण
एक नीला नाम। अनाम। तकलीफ़तपा। ताना सुनता। जनकझिझका। निश्छल। उसे भाग देना नहीं आता, न जानना। अबोध। अथक तुतलाता। गूँथता अभय। जीना। ककहरा सीखता। बीतते से बिंधा। सन्धिरेशों से बुना। प्रदत्तपारपाता। पारा-पारा पलता। अपारदर्शी। वहनधारी। पहले-पहल गधे की ढेंचू-ढेंचू करता अब लिखता है ढेंचू-ढेंचू। हुआँ-हुआँ करते साबितनवीसों के दिये घावों से घमासान करता। घायल। जुगनू-जमूरा। हेकड़ी हाँकता न रस्मी रेवड़ चराता। कक्षापूत। चंदोबाचाहता। जुगतजाल से बचता बाल-बाल। कल से आया कल को जाता कल-कल करता विकलवासी। गले कुछ भी उतर नहीं सका सो सहमति का स्वांग भरने से इनकार करता। दृश्यालेख से ओझल। दर्ज़-दरारों से रिसता हस्बे मामूल। ताड़-पत्रों पर मार्ग तलाशता सान्तहन्ता।
तन्वंगी तामसी के तलुओं में बहते बहेलिये बादलों को अपने सफ़ेद हो चले बालों से आहुति देता। बिना उम्मीद के चारा डालने को समझने लगता। सबसे ऊँचे दरख़्त पर झीने-से सरसराता। बिना चाप कि राल टपकते देख सके।
यूँ चिलका पड़ते आभासी को ओट के सियाह से बचा लेता, अचरज के अतर्कित से।