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शहरों की ढँकी लोलुप | शहरों की ढँकी लोलुप | ||
विषैली वासना का साँप डँसता है | विषैली वासना का साँप डँसता है |
10:34, 14 दिसम्बर 2008 का अवतरण
इन्हीं तृण-फूस-छप्पर से
ढंके ढुलमुल गंवारू
झोंपड़ों में ही हमारा देश बसता है
इन्हीं के ढोल-मादल-बाँसुरी के
उमगते सुर में
हमारी साधना का रस बरसता है
इन्हीं के मर्म को अनजान
शहरों की ढँकी लोलुप
विषैली वासना का साँप डँसता है
इन्हीं में लहरती अल्हड़
अयानी संस्कृति की दुर्दशा पर
सभ्यता का भूत हँसता है।