"काले कपोत / अशोक कुमार पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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किसी शांतिदूत की सुरक्षित हथेलियों में | किसी शांतिदूत की सुरक्षित हथेलियों में | ||
उन्मुक्त आकाश की अनंत ऊँचाइयों | उन्मुक्त आकाश की अनंत ऊँचाइयों | ||
− | की निस्सीम | + | की निस्सीम उड़ान को आतुर |
शरारती बच्चों से चहचहाते | शरारती बच्चों से चहचहाते | ||
धवल कपोत नही हैं ये | धवल कपोत नही हैं ये | ||
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किसी उदास भग्नावशेष के अन्तःपुर की | किसी उदास भग्नावशेष के अन्तःपुर की | ||
शमशानी शान्ति में जीवन बिखेरते पखेरू भी नही | शमशानी शान्ति में जीवन बिखेरते पखेरू भी नही | ||
− | न किसी बुजुर्ग | + | न किसी बुजुर्ग गिरहस्थिन के |
स्नेहिल दाने चुगते चुरगुन | स्नेहिल दाने चुगते चुरगुन | ||
मंदिरों के शिखरों से मस्जिदों के कंगूरों तक | मंदिरों के शिखरों से मस्जिदों के कंगूरों तक | ||
उड़ते निशंक | उड़ते निशंक | ||
− | शायरों की | + | शायरों की आँखों के तारे |
बेमज़हब परिंदे भी नही ये | बेमज़हब परिंदे भी नही ये | ||
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निःशक्त परों के सहारे पड़े निःशब्द | निःशक्त परों के सहारे पड़े निःशब्द | ||
विदीर्ण ह्रदय के डूबते स्पंदनों में | विदीर्ण ह्रदय के डूबते स्पंदनों में | ||
− | + | अंधेरी आँखों से ताकते आसमान | |
गाते कोई खामोश शोकगीत | गाते कोई खामोश शोकगीत | ||
बारूद की भभकती गंध में लिपटे | बारूद की भभकती गंध में लिपटे | ||
ये काले कपोत ! | ये काले कपोत ! | ||
− | कहाँ -कहाँ से | + | कहाँ -कहाँ से पहुँचे थे यहाँ बचते-बचाते |
बल्लीमारन की छतों से | बल्लीमारन की छतों से | ||
बामियान के बुद्ध का सहारा छिन जाने के बाद | बामियान के बुद्ध का सहारा छिन जाने के बाद | ||
गोधरा की उस अभागी आग से निकल | गोधरा की उस अभागी आग से निकल | ||
− | + | बड़ौदा की बेस्ट बेकरी की छतों से हो बेघर | |
− | एहसान | + | एहसान जाफ़री के आंगन से झुलसे हुए पंखों से |
− | उस हस्पताल के | + | उस हस्पताल के प्रांगण में |
− | + | ढूंढते एक सुरक्षित सहारा | |
− | शिकारी आएगा - जाल बिछायेगा - नहीं | + | शिकारी आएगा - जाल बिछायेगा - नहीं फँसेंगे |
का अरण्यरोदन करते | का अरण्यरोदन करते | ||
तलाश रहें हो ज्यों प्रलय में नीरू की डोंगी | तलाश रहें हो ज्यों प्रलय में नीरू की डोंगी |
13:09, 16 दिसम्बर 2008 का अवतरण
किसी शांतिदूत की सुरक्षित हथेलियों में
उन्मुक्त आकाश की अनंत ऊँचाइयों
की निस्सीम उड़ान को आतुर
शरारती बच्चों से चहचहाते
धवल कपोत नही हैं ये
न किसी दमयंती का संदेशा लिए
नल की तलाश में भटकते धूसर प्रेमपाखी
किसी उदास भग्नावशेष के अन्तःपुर की
शमशानी शान्ति में जीवन बिखेरते पखेरू भी नही
न किसी बुजुर्ग गिरहस्थिन के
स्नेहिल दाने चुगते चुरगुन
मंदिरों के शिखरों से मस्जिदों के कंगूरों तक
उड़ते निशंक
शायरों की आँखों के तारे
बेमज़हब परिंदे भी नही ये
भयाकुल शहर के घायल चिकित्सागृह की
मृत्युशैया सी दग्ध हरीतिमा पर
निःशक्त परों के सहारे पड़े निःशब्द
विदीर्ण ह्रदय के डूबते स्पंदनों में
अंधेरी आँखों से ताकते आसमान
गाते कोई खामोश शोकगीत
बारूद की भभकती गंध में लिपटे
ये काले कपोत !
कहाँ -कहाँ से पहुँचे थे यहाँ बचते-बचाते
बल्लीमारन की छतों से
बामियान के बुद्ध का सहारा छिन जाने के बाद
गोधरा की उस अभागी आग से निकल
बड़ौदा की बेस्ट बेकरी की छतों से हो बेघर
एहसान जाफ़री के आंगन से झुलसे हुए पंखों से
उस हस्पताल के प्रांगण में
ढूंढते एक सुरक्षित सहारा
शिकारी आएगा - जाल बिछायेगा - नहीं फँसेंगे
का अरण्यरोदन करते
तलाश रहें हो ज्यों प्रलय में नीरू की डोंगी
पर किसी डोंगी में नहीं बची जगह उनके लिए
या शायद डोंगी ही नहीं बची कोई
उड़ते - चुगते- चहचहाते - जीवन बिखेरते
उजाले प्रतीकों का समय नहीं है यह
हर तरफ बस
निःशब्द- निष्पंद- निराश
काले कपोत !