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13:03, 18 अगस्त 2006 का अवतरण

कवि: गोरखनाथ

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रहता हमारै गुरु बोलेये, हम रहता का चेला ।

मन मानै तौ संगि फिरै, निंहतर फिरै अकेला ।।

अवधू ऐसा ग्यांन बिचारी तामैं झिलिमिलि जोति उजाली ।

जहाँ जोग तहाँ रोग न व्यापै, ऐसा परषि गुर करनां ।

तन मन सूं जे परचा नांही, तौ काहे को पचि मरनां ।।

काल न मिट्या जंजाल न छुट्या, तप करि हुवा न सूरा ।

कुल का नास करै मति कोई, जै गुर मिलै न पूरा ।।

सप्त धात्त का काया पींजरा, ता महिं जुगति बिन सूवा ।

सतगुर मिलै तो ऊबरै बाबू, नहीं तौ परलै हूवा ।

कंद्रप रूप काया का मंडण, अँबिरथा कांई उलींचौ ।

गोरष कहैं सुणौं रे भौंदू, अंरड अँमीं कत सींचौ ।