"नदी / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर
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मरुथली पठार पर | मरुथली पठार पर | ||
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बह रही एक नदी | बह रही एक नदी | ||
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लगातार | लगातार | ||
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वह है चेतना अजब | वह है चेतना अजब | ||
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नहीं होती कभी परास्त वह | नहीं होती कभी परास्त वह | ||
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मरीचिकाओं से | मरीचिकाओं से | ||
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भुलावों में भी | भुलावों में भी | ||
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चलती रहती वह | चलती रहती वह | ||
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श्रमशील कछुए की तरह | श्रमशील कछुए की तरह | ||
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समुद्र की खोज में | समुद्र की खोज में | ||
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मन्द-मन्द | मन्द-मन्द | ||
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कभी ऊँट की तरह भागती | कभी ऊँट की तरह भागती | ||
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पागल, रेतली हवाओं के साथ | पागल, रेतली हवाओं के साथ | ||
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अपनी रेशमी रस्सियों से | अपनी रेशमी रस्सियों से | ||
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पीछे छूट गये | पीछे छूट गये | ||
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बालू के टीलों की तरह | बालू के टीलों की तरह | ||
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पार कीं उसने आयु की | पार कीं उसने आयु की | ||
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अनेक समतल, अतल, गहरी लम्बाइयाँ | अनेक समतल, अतल, गहरी लम्बाइयाँ | ||
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अनन्त-रात्रि में लीन | अनन्त-रात्रि में लीन | ||
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अपनी सम्मोह निद्रा में ही | अपनी सम्मोह निद्रा में ही | ||
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उसने किये हैं रेत में पड़ाव | उसने किये हैं रेत में पड़ाव | ||
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लादे अपने कन्धों पर | लादे अपने कन्धों पर | ||
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इच्छाओं के घर | इच्छाओं के घर | ||
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आयु भर | आयु भर | ||
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सूर्य का पीछा किया है उसने | सूर्य का पीछा किया है उसने | ||
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सूर्य ने ताना अपना | सूर्य ने ताना अपना | ||
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गाढ़ा धूपीला चँदोवा | गाढ़ा धूपीला चँदोवा | ||
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दिन के अन्तरालों में | दिन के अन्तरालों में | ||
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बढ़ते रहे सनकी | बढ़ते रहे सनकी | ||
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हवाओं के ऊँट भी | हवाओं के ऊँट भी | ||
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लगातार बहती | लगातार बहती | ||
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साँसों में नापती समय। | साँसों में नापती समय। | ||
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04:35, 12 जनवरी 2009 का अवतरण
मरुथली पठार पर
बह रही एक नदी
लगातार
रेत को करती तर-ब-तर
उसमें है दम-खम
वह है चेतना अजब
नहीं होती कभी परास्त वह
मरीचिकाओं से
भुलावों में भी
चलती रहती वह
श्रमशील कछुए की तरह
समुद्र की खोज में
मन्द-मन्द
कभी ऊँट की तरह भागती
पागल, रेतली हवाओं के साथ
इच्छाएँ खींचतीं उसे अहर्निश
अपनी रेशमी रस्सियों से
पीछे छूट गये
बालू के टीलों की तरह
पार कीं उसने आयु की
अनेक समतल, अतल, गहरी लम्बाइयाँ
अनन्त-रात्रि में लीन
अपनी सम्मोह निद्रा में ही
उसने किये हैं रेत में पड़ाव
लादे अपने कन्धों पर
इच्छाओं के घर
आयु भर
सूर्य का पीछा किया है उसने
मरु-सन्ध्याओं के
ताम्बई विस्तारों में
पर फिर दूसरी सुबह
कुछ नहीं हुआ
विलीन हुए
ऐन्द्रिक चाप के भ्रम
सूर्य ने ताना अपना
गाढ़ा धूपीला चँदोवा
दिन के अन्तरालों में
बढ़ते रहे सनकी
हवाओं के ऊँट भी
वह हुई थी व्याकुल
आकाश की जद में
धीरे-धीरे वह चलने लगी
फिर मरुथली पठार पर
लगातार बहती
अपने दम-खम के साथ
साँसों में नापती समय।