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बड़े-बड़े गुब्बारों से बँधी | बड़े-बड़े गुब्बारों से बँधी | ||
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रस्सियों से भी | रस्सियों से भी | ||
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झूल रहे थे कुछ | झूल रहे थे कुछ | ||
नीचे थी श्वेतनील घाटियाँ | नीचे थी श्वेतनील घाटियाँ | ||
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ढलानों पर खड़े थे | ढलानों पर खड़े थे | ||
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ध्यानस्थ दरख्त | ध्यानस्थ दरख्त | ||
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अनेक रंगों वाले | अनेक रंगों वाले | ||
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दूधिया हल्की रोशनी में | दूधिया हल्की रोशनी में | ||
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नहायी-नहायी लगती थीं | नहायी-नहायी लगती थीं | ||
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वन वीथियाँ | वन वीथियाँ | ||
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आँखों में तैर गये थे | आँखों में तैर गये थे | ||
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मायिक ज्योति के | मायिक ज्योति के | ||
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अदभुत कंद | अदभुत कंद | ||
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अन्तरिक्ष में उड़ रहे थे वे | अन्तरिक्ष में उड़ रहे थे वे | ||
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एक साथ | एक साथ | ||
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कुछ न कहते | कुछ न कहते | ||
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उकाब की तरह दृष्टि को पंख फैला | उकाब की तरह दृष्टि को पंख फैला | ||
− | + | मैं था उड्डïयनशील | |
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पल में ही एक- एक कर | पल में ही एक- एक कर | ||
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वे हो गये अदृश्य | वे हो गये अदृश्य | ||
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प्रक्षेपित आसमान में | प्रक्षेपित आसमान में | ||
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पर मेरे अन्दर | पर मेरे अन्दर | ||
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कुछ था सारवान | कुछ था सारवान | ||
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जो था निश्चेष्ट जल की तरह | जो था निश्चेष्ट जल की तरह | ||
− | + | स्थितप्रज्ञ | |
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सूरज नहीं था वहाँ | सूरज नहीं था वहाँ | ||
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और न उसके ढलते रंग | और न उसके ढलते रंग | ||
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न था कोई क्षितिज | न था कोई क्षितिज | ||
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उन मायावी घाटियों के पार | उन मायावी घाटियों के पार | ||
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जल में मुझे | जल में मुझे | ||
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घेर रही थी अतिनिद्रा | घेर रही थी अतिनिद्रा | ||
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जगा तो पाया | जगा तो पाया | ||
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मेरी काया पड़ी थी | मेरी काया पड़ी थी | ||
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एक अनदेखे समुद्र के तट | एक अनदेखे समुद्र के तट | ||
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छप-छप करती थीं जल तरंगें | छप-छप करती थीं जल तरंगें | ||
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और आसमान था साफ | और आसमान था साफ | ||
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नये सूरज के स्वागत में | नये सूरज के स्वागत में | ||
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मैंने याद किया | मैंने याद किया | ||
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घाटियों में जो उतरे थे | घाटियों में जो उतरे थे | ||
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वे थे शब्द | वे थे शब्द | ||
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अपने भावार्थों से बँधे | अपने भावार्थों से बँधे | ||
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वे उतरे थे | वे उतरे थे | ||
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चेतना की वीथियों में | चेतना की वीथियों में | ||
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लिखे गये थे वे | लिखे गये थे वे | ||
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दूधिया रोशनी के पृष्ठ पर | दूधिया रोशनी के पृष्ठ पर | ||
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जिसे पढ़ रहा था | जिसे पढ़ रहा था | ||
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मेरा देव-गरुड़ | मेरा देव-गरुड़ | ||
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अनन्त के | अनन्त के | ||
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अपरिधिजन्य | अपरिधिजन्य | ||
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विस्तार में। | विस्तार में। | ||
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02:15, 13 जनवरी 2009 का अवतरण
स्वप्न दर्शन
वे उतरे थे छतरियों से
बड़े-बड़े गुब्बारों से बँधी
रस्सियों से भी
झूल रहे थे कुछ
नीचे थी श्वेतनील घाटियाँ
ढलानों पर खड़े थे
ध्यानस्थ दरख्त
अनेक रंगों वाले
दूधिया हल्की रोशनी में
नहायी-नहायी लगती थीं
वन वीथियाँ
आँखों में तैर गये थे
मायिक ज्योति के
अदभुत कंद
अन्तरिक्ष में उड़ रहे थे वे
एक साथ
कुछ न कहते
उकाब की तरह दृष्टि को पंख फैला
मैं था उड्डïयनशील
पल में ही एक- एक कर
वे हो गये अदृश्य
प्रक्षेपित आसमान में
पर मेरे अन्दर
कुछ था सारवान
जो था निश्चेष्ट जल की तरह
स्थितप्रज्ञ
सूरज नहीं था वहाँ
और न उसके ढलते रंग
न था कोई क्षितिज
उन मायावी घाटियों के पार
जल में मुझे
घेर रही थी अतिनिद्रा
जगा तो पाया
मेरी काया पड़ी थी
एक अनदेखे समुद्र के तट
छप-छप करती थीं जल तरंगें
और आसमान था साफ
नये सूरज के स्वागत में
मैंने याद किया
घाटियों में जो उतरे थे
वे थे शब्द
अपने भावार्थों से बँधे
वे उतरे थे
चेतना की वीथियों में
लिखे गये थे वे
दूधिया रोशनी के पृष्ठ पर
जिसे पढ़ रहा था
मेरा देव-गरुड़
अनन्त के
अपरिधिजन्य
विस्तार में।