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"नूरा / मजाज़ लखनवी" के अवतरणों में अंतर

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हवाओं से लड़ती है लड़ जाएगी वो
 
हवाओं से लड़ती है लड़ जाएगी वो
 
मैं देखूँगा उसके बिफरने का आलम
 
मैं देखूँगा उसके बिफरने का आलम
जवा
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जवानी का ग़ुस्सा बिखरने का आलम
नी का ग़ुस्सा बिखरने का आलम
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इधर दिल में इक शोरे-महशर बपा था
 
इधर दिल में इक शोरे-महशर बपा था

23:03, 16 जनवरी 2009 का अवतरण

वो एक नर्स थी चारागर जिसको कहिये
मदावाये दर्दे जिगर जिसको कहिये

जवानी से तिफ़्ली गले मिल रही थी
हवा चल रही थी कली खिल रही थी
वोह पुर रौब तेवर, वो शादाब चेहरा
मताए जवानी पे फ़ितरत का पहरा
मेरी हुक्मरानी है अहले ज़मीं पर
यह तहरी था साफ़ उसकी जबीं पर
सफ़ेद और शफ़्फ़ाफ़ कपड़े पहन कर
मेरे पास आती थी इक हूर बन कर


कभी उसकी शोख़ी में संजीदगी थी
कभी उसकी संजीदगी में भी शोख़ी
घड़ी चुप घड़ी करने लगती थी बातें
सिरहाने मेरे काट देती थी रातें


सिरहाने मेरे एक दिन सर झुकाए
वोह बैठी थी तकिए पे कोहनी टिकाए
ख़यालाते पैहम में खोई हुई -सी
न जागी हुई-सी, न सोई हुई-सी
झपकती हुई बार-बार उसकी पलकें
जबीं पर शिकन बेक़रार उसकी पलकें

मुझे लेटे-लेटे शरारत की सूझी
जो सूझी भी तो किस शरारत की सूझी
ज़रा बढ़ के कुछ और गरदन झुका ली
लबे लाले अफ़्शाँ से इक शय चुरा ली
वो शय जिसको अब क्या कहूँ कया समझिये
बहिश्ते जवानी का तोहफ़ा समझिये
मैं समझा था शायद बिगड़ जाएगी वो
हवाओं से लड़ती है लड़ जाएगी वो
मैं देखूँगा उसके बिफरने का आलम
जवानी का ग़ुस्सा बिखरने का आलम

इधर दिल में इक शोरे-महशर बपा था
मगर उस तरफ़ रंग ही दूसरा था
हँसी और हँसी इस तरह खिलखिलाकर
कि शमअए हया रह गई झिलमिलाकर
नहीं जानती है मेरा नाम तक वो
मगर भेज देती है पैग़ाम तक वो

ये पैग़ाम आते ही रहते हैं अक्सर
कि किस रोज़ आओगे बीमार हो कर .