भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पंछी / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत |संग्रह=घर एक यात्रा है / श्...)
 
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत  
 
|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत  
|संग्रह=घर एक यात्रा है / श्रीनिवास श्रीकांत  
+
|संग्रह=बात करती है हवा / श्रीनिवास श्रीकांत
 
}}
 
}}
 
<Poem>
 
<Poem>

01:44, 6 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण

पंछी उड़ते हैं
मौसम और आदमी से निराश

नहीं बैठते वे अब
छत की मुंडेरों पर
नगर-नगर घूमते हैं गांव-गांव,
यायावर
करते विहंगावलोकन

नीचे तो गलियां हैं
बिन्दुहीन
बहस की तरह बिन्दुहीन
एक दूसरे को काटतीं
बरामदे हैं आबनूसी
जिनमें सहम सहम
उतरती है धूप

पंछी हैं उड़नशील
निरभ्र आसमानों में
जमीन से वीतराग
नहीं रही अब
वह रहने लायक
पंछी अब गाते नहीं,
कभी कभी रोते भी हैं
इन्हें चाहिए प्यार
चुटकी भर चुग्गा
कटोरी में भर पानी

कहां रहीं अब
वे धर्मभीरु बुढ़ियाएं
जो खिलाती थी चुग्गा-चुरी
पिलातीं थीं कटोरे में पानी

नहीं रहा
पंछियों का
अब कोई घर
वे पहले भी थे यायावर
अब वे बैठें भी तो
किस टहनी पर
सभी ने तो थामी हैं गुलेलें

डरते हैं अब वें
उस पीपल से भी
जिसकी टहनियों पर
बनाए थे उन्होंने घरौंदें

पीपल नहीं रहा अब वह पीपल
बन गया है नागों का घर
इसीलिए वे उड़ते हैं दिनभर

पंछी जब उड़ते हैं
जुड़ते हैं आसमान

साँझ ढले
बस्तियों के बाहर
वृंतहीन वीराने में
पंछी करते हैं बसेरा
सच,
कितनी दर्दनाक है
पंछियों की दास्तान !!