"अकाल-दर्शन / धूमिल" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धूमिल |संग्रह=संसद से सड़क तक / धूमिल }} <poem> भूख कौ...) |
|||
पंक्ति 41: | पंक्ति 41: | ||
सिर्फ़ पीठ देख सकते हो। | सिर्फ़ पीठ देख सकते हो। | ||
− | + | और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के | |
+ | सामने खड़ा हूँ और | ||
+ | उस मुहावरे को समझ गया हूँ | ||
+ | जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है | ||
+ | जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम | ||
+ | बदल रहा है। | ||
+ | लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए) | ||
+ | पत्ते और छाल | ||
+ | खा रहे हैं | ||
+ | मर रहे हैं, दान | ||
+ | कर रहे हैं। | ||
+ | जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से | ||
+ | हिस्सा ले रहे हैं और | ||
+ | अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं। | ||
+ | झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है। | ||
+ | |||
+ | मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन... | ||
+ | उन्होंने मुझे टोक दिया है। | ||
+ | अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम पर | ||
+ | अँगुली रखने से मना करते हैं। | ||
+ | जिनका आधे से ज़्यादा शरीर | ||
+ | भेड़ियों ने खा लिया है | ||
+ | वे इस जंगल की सराहना करते हैं – | ||
+ | 'भारतवर्ष नदियों का देश है।' | ||
+ | |||
+ | बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है। | ||
+ | यह दूसरी बात है कि इस बार | ||
+ | उन्हें पानी ने मारा है। | ||
+ | |||
+ | मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते। | ||
+ | अनाज में छिपे उस आदमी की नीयत | ||
+ | नहीं समझते | ||
+ | जो पूरे समुदाय से | ||
+ | अपनी गिज़ा वसूल करता है – | ||
+ | कभी 'गाय' से | ||
+ | कभी 'हाथ' से | ||
+ | |||
+ | 'यह सब कैसे होता है' मैं उसे समझाता हूँ | ||
+ | मैं उन्हें समझाता हूँ – | ||
+ | यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा है | ||
+ | कि जिस उम्र में | ||
+ | मेरी माँ का चेहरा | ||
+ | झुर्रियों की झोली बन गया है | ||
+ | उसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिला | ||
+ | के चेहरे पर | ||
+ | मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा | ||
+ | लोच है। | ||
+ | |||
+ | ले चुपचाप सुनते हैं। | ||
+ | उनकी आँखों में विरक्ति है : | ||
+ | पछतावा है; | ||
+ | संकोच है | ||
+ | या क्या है कुछ पता नहीं चलता। | ||
+ | वे इस कदर पस्त हैं : | ||
+ | |||
+ | कि तटस्थ हैं। | ||
+ | और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में | ||
+ | एकता युद्ध की और दया | ||
+ | अकाल की पूंजी है। | ||
+ | क्रान्ति – | ||
+ | यहाँ के असंग लोगों के लिए | ||
+ | किसी अबोध बच्चे के – | ||
+ | हाथों की जूजी है। | ||
</poem> | </poem> |
23:26, 5 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण
भूख कौन उपजाता है :
वह इरादा जो तरह देता है
या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर
हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है?
उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर
नहीं दिया।
उसने गलियों और सड़कों और घरों में
बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया
और हँसने लगा।
मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा –
'बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं'
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिए
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे
हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं।
लेकिन यही वे भूलते हैं
दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं
हमारे अपराध फूलते हैं
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
नहीं दिया और हँसता रहा – हँसता रहा – हँसता रहा
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर
'जनता के हित में' स्थानांतरित
हो गया।
मैंने खुद को समझाया – यार!
उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह
क्यों झिझकते हो?
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है?
तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की
सिर्फ़ पीठ देख सकते हो।
और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हूँ और
उस मुहावरे को समझ गया हूँ
जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है।
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)
पत्ते और छाल
खा रहे हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैं।
जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
हिस्सा ले रहे हैं और
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।
मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन...
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अँगुली रखने से मना करते हैं।
जिनका आधे से ज़्यादा शरीर
भेड़ियों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते हैं –
'भारतवर्ष नदियों का देश है।'
बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है।
यह दूसरी बात है कि इस बार
उन्हें पानी ने मारा है।
मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।
अनाज में छिपे उस आदमी की नीयत
नहीं समझते
जो पूरे समुदाय से
अपनी गिज़ा वसूल करता है –
कभी 'गाय' से
कभी 'हाथ' से
'यह सब कैसे होता है' मैं उसे समझाता हूँ
मैं उन्हें समझाता हूँ –
यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा है
कि जिस उम्र में
मेरी माँ का चेहरा
झुर्रियों की झोली बन गया है
उसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।
ले चुपचाप सुनते हैं।
उनकी आँखों में विरक्ति है :
पछतावा है;
संकोच है
या क्या है कुछ पता नहीं चलता।
वे इस कदर पस्त हैं :
कि तटस्थ हैं।
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूंजी है।
क्रान्ति –
यहाँ के असंग लोगों के लिए
किसी अबोध बच्चे के –
हाथों की जूजी है।