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23:46, 16 अगस्त 2006 का अवतरण

कवि: जयशंकर प्रसाद

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हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार ।

उषा ने हँस अभिनंदन किया, और पहनाया हीरक-हार ।।

जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक ।

व्योम-तुम पुँज हुआ तब नाश, अखिल संसृति हो उठी अशोक ।।

विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत ।

सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत ।।

बचाकर बीच रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत ।

अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ में हम बढ़े अभीत ।।

सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता का विकास ।

पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास ।।

सिंधू-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह ।

दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह ।।


धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद ।

हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद ।।

विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम ।

भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम ।

यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि ।

मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि ।।

किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं ।

हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं ।।

जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर ।

खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर ।।

चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न ।

हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न ।।

हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव ।

वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव ।।

वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान ।

वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान ।।

जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष ।

निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।