भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रात की मकड़ी / सौरीन्‍द्र बारिक" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: रात की मकड़ी पहले बुनती है अन्‍धकार का जाल फिर उस जाले में फंस जात...)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 +
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=सौरीन्‍द्र बारिक
 +
|संग्रह=
 +
}}
 +
<Poem>
 +
 
रात की मकड़ी
 
रात की मकड़ी
 
पहले बुनती है अन्‍धकार का जाल
 
पहले बुनती है अन्‍धकार का जाल
फिर उस जाले में फंस जाती है
+
फिर उस जाले में फँस जाती है
कई निरीह तारिकाएं
+
कई निरीह तारिकाएँ
 
तड़पती हैं,
 
तड़पती हैं,
 
तड़पती रहती हैं।
 
तड़पती रहती हैं।
पंक्ति 8: पंक्ति 15:
 
किन्‍तु मेरे मन की मकड़ी
 
किन्‍तु मेरे मन की मकड़ी
 
बुन रही है हताशा का जाल
 
बुन रही है हताशा का जाल
और उसमें फंस जाते हैं
+
और उसमें फँस जाते हैं
 
कोई कोमल स्‍वप्‍न व्‍यथा के
 
कोई कोमल स्‍वप्‍न व्‍यथा के
 
वेदना के।
 
वेदना के।
 +
</poem>

21:05, 17 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण


रात की मकड़ी
पहले बुनती है अन्‍धकार का जाल
फिर उस जाले में फँस जाती है
कई निरीह तारिकाएँ
तड़पती हैं,
तड़पती रहती हैं।

किन्‍तु मेरे मन की मकड़ी
बुन रही है हताशा का जाल
और उसमें फँस जाते हैं
कोई कोमल स्‍वप्‍न व्‍यथा के
वेदना के।