"बादल को घिरते देखा है / नागार्जुन" के अवतरणों में अंतर
Amitprabhakar (चर्चा | योगदान) |
Amitprabhakar (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 12: | पंक्ति 12: | ||
छोटे-छोटे मोती जैसे<br> | छोटे-छोटे मोती जैसे<br> | ||
− | |||
उसके शीतल तुहिन कणों को,<br> | उसके शीतल तुहिन कणों को,<br> | ||
− | + | मानसरोवर के उन स्वर्णिम<br> | |
− | मानसरोवर के उन स्वर्णिम | + | |
− | <br> | + | |
कमलों पर गिरते देखा है,<br> | कमलों पर गिरते देखा है,<br> | ||
− | |||
बादल को घिरते देखा है।<br> | बादल को घिरते देखा है।<br> | ||
पंक्ति 35: | पंक्ति 31: | ||
− | ऋतु वसंत का सुप्रभात था | + | ऋतु वसंत का सुप्रभात था |
− | मंद-मंद था अनिल बह रहा | + | मंद-मंद था अनिल बह रहा |
− | बालारुण की मृदु किरणें थीं | + | बालारुण की मृदु किरणें थीं |
− | अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे | + | अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे |
− | एक-दूसरे से विरहित हो | + | एक-दूसरे से विरहित हो |
− | अलग-अलग रहकर ही जिनको | + | अलग-अलग रहकर ही जिनको |
− | सारी रात बितानी होती, | + | सारी रात बितानी होती, |
− | निशा-काल से चिर-अभिशापित | + | निशा-काल से चिर-अभिशापित |
− | बेबस उस चकवा-चकई का | + | बेबस उस चकवा-चकई का |
− | बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें | + | बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें |
− | उस महान् सरवर के तीरे | + | उस महान् सरवर के तीरे |
− | शैवालों की हरी दरी पर | + | शैवालों की हरी दरी पर |
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।<br> | प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।<br> | ||
पंक्ति 52: | पंक्ति 48: | ||
− | + | शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर<br> | |
दुर्गम बर्फानी घाटी में<br> | दुर्गम बर्फानी घाटी में<br> | ||
− | |||
अलख नाभि से उठने वाले<br> | अलख नाभि से उठने वाले<br> | ||
निज के ही उन्मादक परिमल-<br> | निज के ही उन्मादक परिमल-<br> |
09:18, 18 मार्च 2009 का अवतरण
अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों ले आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
दुर्गम बर्फानी घाटी में
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
कहाँ गय धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कनन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों की कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
नरम निदाग बाल कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।