भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मानुस हौं तो वही / रसखान" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
छो |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | {{KKGlobal}} | |
− | + | {{KKRachna | |
− | + | |रचनाकार = रसखान | |
− | + | }} | |
− | + | ||
− | + | ||
मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन। | मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन। |
18:39, 21 अप्रैल 2008 का अवतरण
मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥