भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"नमन करूँ मैं / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
लेखक: [[रामधारी सिंह "दिनकर"]]
+
~लेखक: [[रामधारी सिंह "दिनकर"]]
[[Category:कविताएँ]]
+
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]
+
 
+
 
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
 
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
  
तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ? <br>
+
तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?
मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ? <br>
+
मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?  
किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं ?<br><br>
+
किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं ?
  
भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ? <br>
+
भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?  
नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?<br>
+
नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?
भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है, <br>
+
भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है,  
मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है।<br>
+
मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है।
जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?<br><br>
+
जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?
  
भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,<br>
+
भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,
एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है ।<br>
+
एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है ।
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है, <br>
+
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है,
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है ।<br>
+
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है ।
निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं ?<br><br>
+
निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं ?
  
खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से, <br>
+
खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से,
पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से, <br>
+
पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से,  
तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है, <br>
+
तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है,
दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है।<br>
+
दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है।
मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं ? <br><br>
+
मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं ?
  
दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं, <br>
+
दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं,
मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं, <br>
+
मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं,  
घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन, <br>
+
घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन,  
खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन।<br>
+
खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन।
आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं ? <br><br>
+
आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं ?
  
उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है, <br>
+
उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है,
धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है, <br>
+
धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है,
तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है, <br>
+
तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है,  
किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है।<br>
+
किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है।
मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं ? <br><br>
+
मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं ?

20:46, 12 मई 2007 का अवतरण

~लेखक: रामधारी सिंह "दिनकर" ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ? मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ? किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं ?

भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ? नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ? भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है, मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है। जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है, एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है । जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है, देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है । निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं ?

खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से, पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से, तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है, दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है। मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं ?

दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं, मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं, घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन, खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन। आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं ?

उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है, धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है, तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है, किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है। मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं ?