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&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: ''' आओ मंदिर मस्जिद खेलें<br>
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&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''माँ का नाच<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[रामकुमार कृषक]]  
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[बोधिसत्व]]  
 
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आओ मंदिर मस्जिद खेलें खूब पदायें मस्जिद को
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वहाँ कई स्त्रियाँ थीं
कल्पित जन्मभूमि को जीतें और हरायें मस्जिद को
+
जो नाच रही थीं, गाते हुए
  
सिया-राममय सब जग जानी सारे जग में राम रमा
+
वे खेत में नाच रही थीं या
फिर भी यह मस्जिद, क्यों मस्जिद चलो हटायें मस्जिद को
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आंगन में यह उन्हें भी नहीं पता था
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एक मटमैले वितान के नीचे था
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चल रहा यह नाच ।
  
तोड़ें दिल के हर मंदिर को पत्थर का मंदिर गढ़ लें
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कोई पीली साड़ी पहने थी
मानवता पैरों की जूती यह जतलायें मस्जिद को
+
कोई धानी
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कोई गुलाबी, कोई जोगन-सी
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सब नाचते हुए मदद कर रही थीं
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एक-दूसरे की
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थोड़ी देर नाच कर दूसरी के लिए
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हट जाती थीं वे नाचने की जगह से ।
  
बाबर बर्बर होगा लेकिन हम भी उससे घाट नहीं
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कुछ देर बाद बारी आई माँ के नाचने की
वह खाता था कसम खुदा की हम खा जायें मस्जिद को
+
उसने बहुत सधे ढंग से
 +
शुरू किया नाचना
 +
गाना शुरू किया बहुत पुराने तरीके से
 +
पुराना गीत
 +
माँ के बाद नाचना था जिन्हें वे भी
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जो नाच चुकी थीं वे भी अचम्भित
 +
मन ही मन नाच रही थीं माँ के साथ ।
  
मध्यकाल की खूँ रेज़ी से वर्तमान को रंगें चलो
+
मटमैले वितान के नीचे
अपनी-अपनी कुर्सी का भवितव्य बनायें मस्जिद को
+
इस छोर से उस छोर तक नाच रही थी माँ
 +
पैरों में बिवाइयाँ थीं गहरे तक फटी
 +
टूट चुके थे घुटने कई बार
 +
झुक चली थी कमर
 +
पर जैसे भँवर घूमता है
 +
जैसे बवंडर नाचता है वैसे
 +
नाच रही थी माँ ।
  
राम-नाम की लूट मची है मर्यादा को क्यों छोड़ें
+
आज बहुत दिनों बाद उसे
लूटपाट करते अब सरहद पार करायें मस्जिद को
+
मिला था नाचने का मौका
 +
और वह नाच रही थी बिना रुके
 +
गा रही थी बहुत पुराना गीत
 +
गहरे सुरों में ।
  
देश हमारा है तोंदों तक नस्लवाद तक आज़ादी
+
अचानक ही हुआ माँ का गाना बन्द
इसी मुख्य धारा में आने को धमकायें मस्जिद को
+
पर नाचना जारी रहा
 +
वह इतनी गति में थी कि परबस
 +
घूमती जा रही थी
 +
फिर गाने की जगह उठा विलाप का स्वर
 +
और फैलता चला गया उसका वितान ।
  
धर्म बहुत कमजोर हुआ है लकवे का डर सता रहा
+
वह नाचती रही बिलखते हुए
अपने डर से डरे हुए हम चलो डरायें मस्जिद को
+
धरती के इस छोर से उस छोर तक
 
+
समुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए खेत तक
गंगाजली उठायें झूठी सरयू को गंदा कर दें
+
सब भरे से उसके नाच की धमक से
संग राम को फिर ले डूबें और डूबायें मस्जिद को
+
सब में समाया था उसका बिलखता हुआ गाना ।
 
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13:21, 14 अप्रैल 2009 का अवतरण

 सप्ताह की कविता

  शीर्षक: माँ का नाच
  रचनाकार: बोधिसत्व

वहाँ कई स्त्रियाँ थीं
जो नाच रही थीं, गाते हुए

वे खेत में नाच रही थीं या
आंगन में यह उन्हें भी नहीं पता था
एक मटमैले वितान के नीचे था
चल रहा यह नाच ।

कोई पीली साड़ी पहने थी
कोई धानी
कोई गुलाबी, कोई जोगन-सी
सब नाचते हुए मदद कर रही थीं
एक-दूसरे की
थोड़ी देर नाच कर दूसरी के लिए
हट जाती थीं वे नाचने की जगह से ।

कुछ देर बाद बारी आई माँ के नाचने की
उसने बहुत सधे ढंग से
शुरू किया नाचना
गाना शुरू किया बहुत पुराने तरीके से
पुराना गीत
माँ के बाद नाचना था जिन्हें वे भी
जो नाच चुकी थीं वे भी अचम्भित
मन ही मन नाच रही थीं माँ के साथ ।

मटमैले वितान के नीचे
इस छोर से उस छोर तक नाच रही थी माँ
पैरों में बिवाइयाँ थीं गहरे तक फटी
टूट चुके थे घुटने कई बार
झुक चली थी कमर
पर जैसे भँवर घूमता है
जैसे बवंडर नाचता है वैसे
नाच रही थी माँ ।

आज बहुत दिनों बाद उसे
मिला था नाचने का मौका
और वह नाच रही थी बिना रुके
गा रही थी बहुत पुराना गीत
गहरे सुरों में ।

अचानक ही हुआ माँ का गाना बन्द
पर नाचना जारी रहा
वह इतनी गति में थी कि परबस
घूमती जा रही थी
फिर गाने की जगह उठा विलाप का स्वर
और फैलता चला गया उसका वितान ।

वह नाचती रही बिलखते हुए
धरती के इस छोर से उस छोर तक
समुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए खेत तक
सब भरे से उसके नाच की धमक से
सब में समाया था उसका बिलखता हुआ गाना ।