"रश्मिरथी / कथावस्तु" के अवतरणों में अंतर
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10:20, 22 अगस्त 2008 का अवतरण
कथावस्तु
रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात पुण्य का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र अत्यन्त पुण्यमय और प्रोज्जवल है।
कर्ण महाभारत महाकाव्य का अत्यन्त यशस्वी पात्र है। उसका जन्म पाण्डवों की माता कुन्ती के गर्भ से उस समय हुआ जब कुन्ती अविवाहिता थीं, अतएव, कुन्ती ने लोकलज्जा से बचने के लिए, अपने नवजात शिशु को एक मंजूषा में बन्द करके नदी में बहा दिया। वह मंजूषा अधिरथ नाम के सुत को मिली। अधिरथ के कोई सन्तान नहीं थी। इसलिए, उन्होंने इस बच्चे को अपना पुत्र मान लिया। उनकी धर्मपत्नी का नाम राधा था। राधा से पालित होने के कारण ही कर्ण का एक नाम राधेय भी है।
कौरव-पाण्डव का वंश परिचय यह है कि दोनों महाराज शान्तनु के कुल में उत्पन्न हुए। शान्तनु से कई पीढ़ी ऊपर महाराज कुरु हुए थे। इसलिए, कौरव-पाण्डव दोनों कुरुवंशी कहलाते हैं। शान्तनु का विवाह गंगाजी से हुआ था, जिनसे कुमार देवव्रत उत्पन्न हुए। यही देवव्रत भीष्म कहलाये, क्योंकि चढ़ती जवानी में ही इन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की भीष्म अथवा भयानक प्रतिज्ञा की थी। महाराज शान्तनु ने निषाद-कन्या सत्यवती से भी विवाह किया था, जिससे उन्हें चित्रांगद और विचित्रवीर्य दो पुत्र हुए। चित्रांगद कुमारावस्था में ही एक युद्ध में मारे गये। विचित्रवीर्य के अम्बिका और अम्बालिका नाम की दो पत्नियां थीं, किन्तु, क्षय रोग हो जाने के कारण विचित्रवीर्य भी निःसंतान ही मरे।
ऐसी अवस्था में वंश चलाने के लिए सत्यवती ने व्यासजी को आमन्त्रित किया। व्यासजी ने नियोग-पद्घति से विचित्रवीर्य की दोनों विधवा पत्नियों से पुत्र उत्पन्न किये। अम्बिका से धृतराष्ट्र और अम्बालिका से पाण्डु जन्मे। मातृ-दोष से धृतराष्ट्र जन्म से ही अन्धे और पाण्डु पीलिया के रोगी थे। अतएव, अम्बिका की प्रेरणा से व्यासजी ने उसकी दासी से तीसरा पुत्र उत्पन्न किया जिसका नाम विदुर हुआ।
राजा धृतराष्ट्र के सौ पुत्र एक ही पत्नी महारानी गन्धारी से हुए थे। महाराज पाण्डु के दो पत्नियां थीं, एक कुन्ती, दूसरी माद्री। परन्तु, ऋषि से मिले शाप के कारण वे स्त्री-समागम से विरत थे। अतएव, कुन्ती ने अपने पति की आज्ञा से तीन पुत्र तीन देवताओं से प्राप्त किये। जैसे कुमारावस्था में कुन्ती ने सूर्य-समागम से कर्ण को उत्पन्न किया था, उसी प्रकार; विवाह होने पर उसने धर्मराज से युधिष्ठिर, पवनदेव से भीम और इन्द्र से अर्जुन को उत्पन्न किया। माद्री के एक ही गर्भ से दो पुत्र हुए, एक नकुल, दूसरे सहदेव- ये दोनों भाई भी महाराज पाण्डु के अंश नहीं, दो अश्विनीकुमारों के अंश से थे। पाण्डु के मरने पर माद्री सती हो गयीं और पाँचों पुत्रों के पालन का भार कुन्ती पर पड़ा। माद्री महाराज शल्य की बहन थीं।