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"कोई चिनगारी तो उछले / यश मालवीय" के अवतरणों में अंतर
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+ | इतने ऊँचे तापमान पर शब्द ठुठुरते हैं तो कैसे, | ||
− | + | शायद तुमने बाँध लिया है ख़ुद को छायाओं के भय से, | |
− | + | इस स्याही पीते जंगल में कोई चिनगारी तो उछले । | |
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+ | तुम भूले संगीत स्वयं का मिमियाते स्वर क्या कर पाते, | ||
+ | जिस सुरंग से गुजर रहे हो उसमें चमगादड़ बतियाते, | ||
− | + | ऐसी राम भैरवी छेड़ो आ ही जायँ सबेरे उजले । | |
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+ | तुमने चित्र उकेरे भी तो सिर्फ़ लकीरें ही रह पायीं, | ||
− | + | कोई अर्थ भला क्या देतीं मन की बात नहीं कह पायीं, | |
− | + | रंग बिखेरो कोई रेखा अर्थों से बच कर क्यों निकले ? | |
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− | रंग बिखेरो कोई रेखा | + | |
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− | अर्थों से बच कर क्यों निकले ? | + |
12:01, 28 अगस्त 2006 का अवतरण
कवि: यश मालवीय
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अपने भीतर आग भरो कुछ जिस से यह मुद्रा तो बदले ।
इतने ऊँचे तापमान पर शब्द ठुठुरते हैं तो कैसे,
शायद तुमने बाँध लिया है ख़ुद को छायाओं के भय से,
इस स्याही पीते जंगल में कोई चिनगारी तो उछले ।
तुम भूले संगीत स्वयं का मिमियाते स्वर क्या कर पाते,
जिस सुरंग से गुजर रहे हो उसमें चमगादड़ बतियाते,
ऐसी राम भैरवी छेड़ो आ ही जायँ सबेरे उजले ।
तुमने चित्र उकेरे भी तो सिर्फ़ लकीरें ही रह पायीं,
कोई अर्थ भला क्या देतीं मन की बात नहीं कह पायीं,
रंग बिखेरो कोई रेखा अर्थों से बच कर क्यों निकले ?