भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 9" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"  
 
|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"  
 
}}
 
}}
[[रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग  /  भाग  8|<< पिछला भाग]]
+
 
 +
 
 +
[[रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग  /  भाग  8|<< द्वितीय सर्ग  /  भाग 8]] | [[रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग  /  भाग  10| द्वितीय सर्ग  /  भाग  10 >>]]
  
  
पंक्ति 14: पंक्ति 16:
  
 
बुद्धि चलाती जिसे, तेज का कर सकता बलिदान वही।
 
बुद्धि चलाती जिसे, तेज का कर सकता बलिदान वही।
 
 
  
  
पंक्ति 25: पंक्ति 25:
  
 
इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है।
 
इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है।
 
 
  
  
पंक्ति 36: पंक्ति 34:
  
 
मुख विवर्ण हो गया, अंग काँपने लगे भय से थर-थर!
 
मुख विवर्ण हो गया, अंग काँपने लगे भय से थर-थर!
 
 
  
  
पंक्ति 47: पंक्ति 43:
  
 
आया था विद्या-संचय को, किन्तु , व्यर्थ बदनाम हुआ।
 
आया था विद्या-संचय को, किन्तु , व्यर्थ बदनाम हुआ।
 
 
  
  
पंक्ति 58: पंक्ति 52:
  
 
महाराज मुझ  सूत-पुत्र को कुछ भी नहीं सिखायेंगे।
 
महाराज मुझ  सूत-पुत्र को कुछ भी नहीं सिखायेंगे।
 
 
  
  
पंक्ति 70: पंक्ति 62:
 
मारे बिना हृदय में अपने-आप मरा-सा जाता हूँ।
 
मारे बिना हृदय में अपने-आप मरा-सा जाता हूँ।
  
[[रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग  /  भाग  10|अगला भाग >>]]
+
 
 +
[[रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग  /  भाग  8|<< द्वितीय सर्ग  /  भाग  8]] | [[रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग  /  भाग  10| द्वितीय सर्ग  /  भाग 10 >>]]

10:59, 22 अगस्त 2008 का अवतरण


<< द्वितीय सर्ग / भाग 8 | द्वितीय सर्ग / भाग 10 >>


'सहनशीलता को अपनाकर ब्राह्मण कभी न जीता है,

किसी लक्ष्य के लिए नहीं अपमान-हलाहल पीता है।

सह सकता जो कठिन वेदना, पी सकता अपमान वही,

बुद्धि चलाती जिसे, तेज का कर सकता बलिदान वही।


'तेज-पुञ्ज ब्राह्मण तिल-तिल कर जले, नहीं यह हो सकता,

किसी दशा में भी स्वभाव अपना वह कैसे खो सकता?

कसक भोगता हुआ विप्र निश्चल कैसे रह सकता है?

इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है।


'तू अवश्य क्षत्रिय है, पापी! बता, न तो, फल पायेगा,

परशुराम के कठिन शाप से अभी भस्म हो जायेगा।'

'क्षमा, क्षमा हे देव दयामय!' गिरा कर्ण गुरु के पद पर,

मुख विवर्ण हो गया, अंग काँपने लगे भय से थर-थर!


'सूत-पूत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ,

जो भी हूँ, पर, देव, आपका अनुचर अन्तेवासी हूँ

छली नहीं मैं हाय, किन्तु छल का ही तो यह काम हुआ,

आया था विद्या-संचय को, किन्तु , व्यर्थ बदनाम हुआ।


'बड़ा लोभ था, बनूँ शिष्य मैं कार्त्तवीर्य के जेता का ,

तपोदीप्त शूरमा, विश्व के नूतन धर्म-प्रणेता का।

पर, शंका थी मुझे, सत्य का अगर पता पा जायेंगे,

महाराज मुझ सूत-पुत्र को कुछ भी नहीं सिखायेंगे।


'बता सका मैं नहीं इसी से प्रभो! जाति अपनी छोटी,

करें देव विश्वास, भावना और न थी कोई खोटी।

पर इतने से भी लज्जा में हाय, गड़ा-सा जाता हूँ,

मारे बिना हृदय में अपने-आप मरा-सा जाता हूँ।


<< द्वितीय सर्ग / भाग 8 | द्वितीय सर्ग / भाग 10 >>