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"मैं चल तो दूँ (कविता) / कविता वाचक्नवी" के अवतरणों में अंतर

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अनुमति तो ली ही नहीं - पिता से,
 
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इस अनिच्छा का क्या करूँ
 
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दोस्त!  मेरी कविता के पन्ने
 
दोस्त!  मेरी कविता के पन्ने
 
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हाथ बढा़कर नाप लूँ जितनी,
 
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01:43, 6 जून 2009 का अवतरण

मैं चल तो दूँ
पर
उन सबको साथ लेकर
चलने की इच्छा का
क्या करूँ
जिन्हें चलना नहीं आता

मैं चल तो दूँ
पर अधकटी टाँग पर
चारपाई का पाया बाँधे
हमगाम
उस लड़के को छोड़
चलना इतना आसान है क्या?

या फिर
कान में तार फँसाए
अबोले, निरीह स्पर्शों को
ले जाने की
अनुमति मिल जाएगी?

मैं चल तो दूँ
पर
बगल में बैठी
महिला की गोद का बच्चा
मेरी बाँह पर सिर टेक
बस में, अभी-अभी सोया है

मैं चल तो दूँ
पर झाडू की सींकों पर
स्वेटर की बुनाई सीखने आती
पड़ोस की बच्ची
उदास हो जाएगी
और वह
ठठरी-से कंकाल पर
प्याज़ का छिलका-सा चढी़ देह वाला बूढा़
गोटी कागज़ के टुकडे़
सिगरेट की चमकीली अधपन्नियाँ
बोरे के नीचे दाबे
ठिठुराता न चुक जाए कहीं

भीष्म वृक्ष के तने पर
लिपटता-चढ़ता मेरा बेटा
अर्जुन की तरह, खिलखिलाता
कहीं बाण न तान ले
कालांतर में

टूटे चश्में के बचे काँच से
कागज़ तलाश कर
अर्जी लिखवाने भी आना है अभी
सीमा पर मारे गए युवक के
अकेले पिता को।

तुम फिर भी कहते हो - चलूँ!
और यह जो लावारिस कुत्ता
दो रोटी मिलने के दिन से ही
छोड़ने आता है सड़क तक मुझे
फिर तो, बेचैन हो जाएगा

काँटे-से उग आए हैं
मेरी गाय की जीभ पर जो
उनका पाप लिए
कहाँ चल सकती हूँ अभी?

माँ की तुलसीमाला
पिरोनी बची है
यों छोड़ जाना
संभव नहीं मेरे लिए
और
अनुमति तो ली ही नहीं - पिता से,
दुखते घुटनों चल
घाट तक कैसे जाएंगे--वे?

मैं चल तो दूँ
पर अपनी
इस अनिच्छा का क्या करूँ
कि सूर्यास्त तक माप कर आई
जमीन की अंधी दौड़ में
नहीं जाना मुझे?

दोस्त! मेरी कविता के पन्ने
उतने - भर में फैलने दो
हाथ बढा़कर नाप लूँ जितनी,
यही, कोई दो गज़!!