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"छाँह में झुलसे जले / कविता वाचक्नवी" के अवतरणों में अंतर

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बाँह धर कर
 
बाँह धर कर
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:::::मत आँख खोलो।
 
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कल्पदर्शी चक्षु का
 
कल्पदर्शी चक्षु का

19:50, 25 जून 2010 के समय का अवतरण

छाँह में झुलसे जले


एक साया
तमतमाया
बोलता
लो तप जरा
और हम
पेड़ों तले भी
छाँह में
झुलसे जले -
साथ सोए स्वप्न को
पल-पल झिंझोड़ा,
देखा उनींदी आँख से
औ’ सकपकाए।



बाँह धर कर
स्वप्न ने
कुछ पास खींचा,
आँख का
अंजन नहीं हूँ
स्वप्न हूँ
मत आँख खोलो।



कल्पदर्शी चक्षु का
अविराम नर्तन
तरलता के बीच
पल-पल
थिरकता है
और छाया को
तपन के
ताड़नों से
हेरता है।