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"कविता, ओ कविता ! / रवीन्द्र दास" के अवतरणों में अंतर

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प्यार को अलगा पाएगा इन्सान
 
प्यार को अलगा पाएगा इन्सान
 
पशुवृत्ति सम्भोग से
 
पशुवृत्ति सम्भोग से
शब्दों की सर्जनात्मिका शक्ति बची रह पायेगी तेरे बगैर
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शब्दों की सर्जनात्मक शक्ति बची रह पाऐगी तेरे बगैर
 
ओ मेरी कविता रानी!
 
ओ मेरी कविता रानी!
बिना कविता के सारे आदमजाद हैवान नहीं हो जायेंगे
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बिना कविता के सारे आदमजाद हैवान नहीं हो जाएंगे
 
मैं नहीं करता इंकार
 
मैं नहीं करता इंकार
 
कि बदले हैं मायने इंसानियत के
 
कि बदले हैं मायने इंसानियत के
बाजार ने बना दिया हर चीज को पण्य
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तुम्हे भी दल्ले किस्म के हास्य-कवियों ने
 
तुम्हे भी दल्ले किस्म के हास्य-कवियों ने
 
बना दिया है सस्ता नचनिया
 
बना दिया है सस्ता नचनिया
 
लोग खोजते हैं कविताओं में गुदगुदी और उत्तेजना
 
लोग खोजते हैं कविताओं में गुदगुदी और उत्तेजना
तो भी ओ कविता,
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मैं करता भी हूँ
 
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और दिलाता भी हूँ तुम्हे यकीन
 
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मुझे अहसास है
 
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कि जिस भी दिल में साँस लेती होगी इंसानियत
 
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उस दिल में तुम्हारा कमरा होगा ज़रूर ।
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कविता, ओ कविता !
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कविता, ओ कविता!
एक बार ज़रा मुस्कुरा दो जी खोल कर ।
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एक बार ज़रा मुस्कुरा दो जी खोल कर।
 
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22:43, 18 जून 2009 के समय का अवतरण

कविता, ओ कविता!
मुझे मालूम है कि तू न तो मेरी प्रेमिका है
न पत्नी या रखैल
माँ, बहन या बेटी ...
तू तो कुछ भी नहीं है मेरी
मुझे तो यहाँ तक भी नहीं पता है
कि तुझे मेरे होने का अहसास है भी या नहीं
फिर भी, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता
कि तू क्या सोचती है मेरे बारे में
या कुछ सोचती भी है या नहीं
लेकिन जब कोई मनचला करता है शरारत तेरे साथ
मेरा जी जलता है
जब कोई गढ़ता है सिद्धांत
कि नहीं है जरुरत दुनिया को कविता की
तो जी करता है
बजाऊँ उसके कान के नीचे जोर का तमाचा
ओ कविता !
तेरे बगैर दुनिया में
आदमजात इन्सान रहेंगे
प्यार को अलगा पाएगा इन्सान
पशुवृत्ति सम्भोग से
शब्दों की सर्जनात्मक शक्ति बची रह पाऐगी तेरे बगैर
ओ मेरी कविता रानी!
बिना कविता के सारे आदमजाद हैवान नहीं हो जाएंगे
मैं नहीं करता इंकार
कि बदले हैं मायने इंसानियत के
बाज़ार ने बना दिया हर चीज को पण्य
तुम्हे भी दल्ले किस्म के हास्य-कवियों ने
बना दिया है सस्ता नचनिया
लोग खोजते हैं कविताओं में गुदगुदी और उत्तेजना
तो भी ओ कविता!
मैं करता भी हूँ
और दिलाता भी हूँ तुम्हे यकीन
कि प्यार और कविता का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता
चाहे सटोरिये, चटोरिये, पचोरिये -
लगा लें कितना भी जोर
मुझे अहसास है
कि जिस भी दिल में साँस लेती होगी इंसानियत
उस दिल में तुम्हारा कमरा होगा ज़रूर।
कविता, ओ कविता!
एक बार ज़रा मुस्कुरा दो जी खोल कर।