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&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''औरत लोग<br>
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&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''बाबू जी<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[येव्गेनी येव्तुशेंको]]  
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[आलोक श्रीवास्तव]]  
 
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मेरे जीवन में आईं हैं औरतें कितनी
 
गिना नहीं कभी मैंने
 
पर हैं वे एक ढेर जितनी
 
  
अपने लगावों का मैंने
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घर की बुनियादें दीवारें बामों-दर थे बाबू जी
कभी कोई हिसाब नहीं रक्खा
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सबको बाँधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबू जी
पर चिड़ी से लेकर हुक्म तक की बेगमों को परखा
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खेलती रहीं वे खुलकर मुझसे उत्तेजना के साथ
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और भला क्या रखा थ
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दुनिया के इस सबसे अविश्वसनीय
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बादशाह के पास
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समरकन्द में बोला मुझ से एक उज़्बेक-
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तीन मुहल्लों में उन जैसी कद काठी का कोई न था
"औरत लोग होती हैं आदमी नेक"
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अच्छे ख़ासे ऊँचे पूरे क़द्दावर थे बाबू जी
औरत लोगो के बारे में मैंने अब तक जो लिखी कविताएँ
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एक संग्रह पूरा हो गया और वे सबको भाएँ
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मैंने अब तक जो लिखा है और लिखा है जैसा
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अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
औरत लोगों ने माँ और पत्नी बन
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अम्मा जी की सारी सजधज सब ज़ेवर थे बाबू जी
लिख डाला सब वैसा
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पुरुष हो सकता है अच्छा पिता सिर्फ़ तब
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भीतर से ख़ालिस जज़बाती और ऊपर से ठेठ पिता
माँ जैसा कुछ होता है उसके भीतर जब
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अलग अनूठा अनबूझा सा इक तेवर थे बाबू जी
औरत लोग कोमल मन की हैं दया है उनकी आदत
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मुझे बचा लेंगी वे उस सज़ा से, जो देगी मुझे
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पुरुषों की दुष्ट अदालत
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मेरी गुरनियाँ, मेरी टीचर, औरत लोग हैं मेरी ईश्वर
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कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे कभी हथेली की सूजन
पृथ्वी लगा रही है देखो, उनकी जूतियों के चक्कर
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मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबू जी
मैं जो कवि बना हूँ आज, कवियों का यह पूरा समाज
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सब उन्हीं की कृपा है
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औरत लोगों ने जो कहा, कुछ भी नहीं वृथा है
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सुन्दर, कोमलांगी लेखिकाएँ जब गुजरें पास से मेरे
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मेरे प्राण खींच लेते हैं उनकी स्कर्टों के घेरे
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मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय
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14:26, 25 जून 2009 का अवतरण

 सप्ताह की कविता

  शीर्षक: बाबू जी
  रचनाकार: आलोक श्रीवास्तव


घर की बुनियादें दीवारें बामों-दर थे बाबू जी
सबको बाँधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबू जी 

तीन मुहल्लों में उन जैसी कद काठी का कोई न था
अच्छे ख़ासे ऊँचे पूरे क़द्दावर थे बाबू जी

अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्मा जी की सारी सजधज सब ज़ेवर थे बाबू जी

भीतर से ख़ालिस जज़बाती और ऊपर से ठेठ पिता
अलग अनूठा अनबूझा सा इक तेवर थे बाबू जी

कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबू जी