भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अब न रहे वो रूख / नईम" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKGlobal}} | {{KKGlobal}} | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
− | |रचनाकार= नईम | + | |रचनाकार=नईम |
+ | |संग्रह= | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatNavgeet}} | |
− | + | <poem> | |
अब न रहे वो रूख कि जिन पर, | अब न रहे वो रूख कि जिन पर, | ||
− | |||
पत्ते होते थे। | पत्ते होते थे। | ||
− | |||
फूलों, कोंपल आंखें, | फूलों, कोंपल आंखें, | ||
− | |||
शहद के छत्ते होते थे। | शहद के छत्ते होते थे। | ||
− | |||
उखड़े-उखड़े खड़े अकालों आए नहीं झोंके | उखड़े-उखड़े खड़े अकालों आए नहीं झोंके | ||
− | |||
आते थे जो काम हमारे मौके बेमौके | आते थे जो काम हमारे मौके बेमौके | ||
− | |||
जिनकी छांव बिलमकर हम तुम | जिनकी छांव बिलमकर हम तुम | ||
− | |||
सपने बोते थे। | सपने बोते थे। | ||
− | |||
क्या होंगे पत्ते फूलों औ' फुनगी शाखों से? | क्या होंगे पत्ते फूलों औ' फुनगी शाखों से? | ||
− | |||
मौन प्रार्थनारत हैं वो मिलने को राखों से। | मौन प्रार्थनारत हैं वो मिलने को राखों से। | ||
− | |||
रहे नहीं अब रैन-बसेरा | रहे नहीं अब रैन-बसेरा | ||
− | |||
मैना तोते के। | मैना तोते के। | ||
− | |||
आंखों के बीहड़ सूखे ने सुखा दिया जड़ से, | आंखों के बीहड़ सूखे ने सुखा दिया जड़ से, | ||
− | |||
इस सामान्यों की क्या तुलना पीपल औ बड़ से | इस सामान्यों की क्या तुलना पीपल औ बड़ से | ||
− | |||
नहीं रहे कंधे जिनसे लग के | नहीं रहे कंधे जिनसे लग के | ||
− | |||
दुखड़े रोते थे | दुखड़े रोते थे | ||
अब न रहे वो रूख कि जिन पर | अब न रहे वो रूख कि जिन पर | ||
− | |||
पत्ते होते थे | पत्ते होते थे | ||
+ | </poem> |
11:45, 13 जनवरी 2010 के समय का अवतरण
अब न रहे वो रूख कि जिन पर,
पत्ते होते थे।
फूलों, कोंपल आंखें,
शहद के छत्ते होते थे।
उखड़े-उखड़े खड़े अकालों आए नहीं झोंके
आते थे जो काम हमारे मौके बेमौके
जिनकी छांव बिलमकर हम तुम
सपने बोते थे।
क्या होंगे पत्ते फूलों औ' फुनगी शाखों से?
मौन प्रार्थनारत हैं वो मिलने को राखों से।
रहे नहीं अब रैन-बसेरा
मैना तोते के।
आंखों के बीहड़ सूखे ने सुखा दिया जड़ से,
इस सामान्यों की क्या तुलना पीपल औ बड़ से
नहीं रहे कंधे जिनसे लग के
दुखड़े रोते थे
अब न रहे वो रूख कि जिन पर
पत्ते होते थे