भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सूरज इतना लाल हुआ / जगदीश व्योम" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=जगदीश व्योम | |रचनाकार=जगदीश व्योम | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatNavgeet}} | ||
+ | <poem> | ||
जाने क्या हो गया, कि<br /> | जाने क्या हो गया, कि<br /> | ||
पंक्ति 30: | पंक्ति 32: | ||
जाने क्या हो गया, कि<br /> | जाने क्या हो गया, कि<br /> | ||
सूरज इतना लाल हुआ।।<br /> | सूरज इतना लाल हुआ।।<br /> | ||
+ | </poem> |
09:19, 15 अप्रैल 2010 का अवतरण
जाने क्या हो गया, कि
सूरज इतना लाल हुआ।
प्यासी हवा हाँफती
फिर-फिर पानी खोज रही
सूखे कण्ठ-कोकिला, मीठी
बानी खोज रही
नीम द्वार का, छाया खोजे
पीपल गाछ तलाशे
नदी खोजती धार
कूल कब से बैठे हैं प्यासे
पानी-पानी रटे
रात-दिन, ऐसा ताल हुआ।
जाने क्या हो गया, कि
सूरज इतना लाल हुआ।।
सूने-सूने राह, हाट, वन
सब कुछ सूना-सूना
बढ़ता जाता और दिनो-दिन
तेज धूप का दूना
धरती व्याकुल, अम्बर व्याकुल
व्याकुल ताल-तलैया
पनघट, कुँआ, बावड़ी व्याकुल
व्याकुल बछड़ा गैया
अब तो आस तुझी से बादल
क्यों कंगाल हुआ।
जाने क्या हो गया, कि
सूरज इतना लाल हुआ।।