"मनुष्यता / मैथिलीशरण गुप्त" के अवतरणों में अंतर
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विचार लो कि मत्र्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी। | विचार लो कि मत्र्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी। | ||
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हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए। | हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए। | ||
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यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। | यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। | ||
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उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती। | उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती। | ||
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उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती। | उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती। | ||
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अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।। | अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।। | ||
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सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही। | सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही। | ||
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विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे? | विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे? | ||
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अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। | अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। | ||
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अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े। | अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े। | ||
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परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी। | परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी। | ||
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रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। | रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। | ||
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\"मनुष्य मात्र बन्धु है\" यही बड़ा विवेक है¸पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है। | \"मनुष्य मात्र बन्धु है\" यही बड़ा विवेक है¸पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है। | ||
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फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं। | फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं। | ||
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अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। | अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। | ||
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चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए। | चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए। | ||
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घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी। | घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी। | ||
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तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸वही मन्ुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। | तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸वही मन्ुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। |
18:03, 7 अगस्त 2007 का अवतरण
विचार लो कि मत्र्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।
सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
\"मनुष्य मात्र बन्धु है\" यही बड़ा विवेक है¸पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸वही मन्ुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।