भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"दांपत्य / सरोजिनी साहू" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 20: | पंक्ति 20: | ||
और अब एक-दूसरे को देखना भी संभव न था. | और अब एक-दूसरे को देखना भी संभव न था. | ||
− | + | फिर भी दोनों बैठे रहे, चुपचाप | |
क्योंकि एक की साँस दूसरी की पहचान थी. | क्योंकि एक की साँस दूसरी की पहचान थी. | ||
हम बैठे थे | हम बैठे थे | ||
पंक्ति 29: | पंक्ति 29: | ||
किसी ने मेरी हथेली पर अपना हाथ रखा. | किसी ने मेरी हथेली पर अपना हाथ रखा. | ||
− | ( अनुवाद: ''' जगदीश | + | (अनुवाद: '''जगदीश महान्ति''') |
+ | |||
+ | (प्रस्तुत कविता का अनुवाद '''साहित्य अमृत''' के मई २००८ अंक में प्रकाशित) |
22:15, 17 अगस्त 2009 का अवतरण
हम दोनों बैठे थे चुपचाप
दिन बीता, साँझ हुई
साँझ बीती, रात हुई
पंछी लौट चले अपने घोंसले में
चाँद निकलने वाला था,
हमें मालूम न था
शुक्लपक्ष था या कृष्णपक्ष था .
हम दोनों बैठे थे चुपचाप
चारों तरफ सरीसृप,कीडे-मकोडे घेरे हुए थे हमें
लता-गुल्मों की तरह,
उस ओर हमारी नज़र न थी
अँधेरा गहराता गया,
और अब एक-दूसरे को देखना भी संभव न था.
फिर भी दोनों बैठे रहे, चुपचाप
क्योंकि एक की साँस दूसरी की पहचान थी.
हम बैठे थे
ओंस भिगाती गई,
कुहासा ढंकता गया,
पावों से हम जमते गए,
बर्फ बनने के पहले देखा,
किसी ने मेरी हथेली पर अपना हाथ रखा.
(अनुवाद: जगदीश महान्ति)
(प्रस्तुत कविता का अनुवाद साहित्य अमृत के मई २००८ अंक में प्रकाशित)