"वजूद तलाशती औरत ..... / हरकीरत हकीर" के अवतरणों में अंतर
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इक मछली | इक मछली |
06:52, 16 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण
शीशे की दीवारों में कैद
इक मछली
धीरे-धीरे तलाशती है
अपना वजूद
उसके वजूद के बुलबुले
ऊपर उठते हैं
और ऊपर उठकर
दम तोड़ देते हैं
जानी -पहचानी
ये मछली मुझे
हर औरत के चेहरे में
नजर आती
रेगिस्तान में
मृग -मरीचिका सी
भागती-फिरती
नंगी- गीलीं
परछाइयों के बीच
अपने वजूद को तलाशती
सुनहरी,रुपहली
सुंदर मछली ....
एक्वेरियम में
बिछाई गई बजरी
समुंदरी पेड़ - पौधे
लाल,भूरे रंग के
छोटे-बड़े पत्थरों के बीच
गीले सवालों में खड़ी
अपने अस्तित्व को तलाशती
जूते की गिरफ्त में कराहती
किसी तड़पती कोख में
दम तोड़ती
हवा के बंद टुकड़े सी
कमरे में सिसकती
बाज़ारों में अपना
जिस्म नुचवाती
हँसी की कब्र में
उतर जाती है
किसी बिलबिलाते
चेहरे का
निवाला बनने .....
वह नहीं बन पाती
सीता-सावित्री
वह बनती है
खजुराहो की मैथुन मूर्ति
शीशे की दीवारों में कैद
वह आज भी
कटघरे में खड़ी है
न्याय के लिए ...
आज के कवियों की
कविता की तरह
संभोग की पृष्ठभूमि पर टंगी
वह अपना वजूद तलाशती है
शिखर पर पहुँचने का वजूद
स्त्री होने का वजूद
जी भर .......
साँस ले पाने का वजूद.....