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"फ़िक्र ही ठहरी तो दिल को फ़िक्र-ए- ख़ुबाँ क्यों न हो / जोश मलीहाबादी" के अवतरणों में अंतर
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− | फ़िक्र ही ठहरी तो दिल को | + | फ़िक्र ही ठहरी तो दिल को फ़िक्रे-ख़ूबाँ क्यों न हो |
− | ख़ाक होना है तो | + | ख़ाक होना है तो ख़ाके-कू-ए-जानाँ क्यों न हो |
− | ज़ीस्त है जब मुस्तक़िल | + | ज़ीस्त है जब मुस्तक़िल आवाराग़र्दी ही का नाम |
− | अक़्ल वालो फिर | + | अक़्ल वालो! फिर तवाफ़े-कू-ए-जानाँ क्यों न हो |
इक न इक रिफ़'अत के आगे सज्दा लाज़िम है तो फिर | इक न इक रिफ़'अत के आगे सज्दा लाज़िम है तो फिर | ||
− | आदमी | + | आदमी महवे-सजूद-ए-सिर्रे-ख़ूबाँ क्यों न हो |
इक न इक ज़ुल्मत से जब वाबस्ता रहना है तो "ज़ोश" | इक न इक ज़ुल्मत से जब वाबस्ता रहना है तो "ज़ोश" | ||
− | ज़िन्दगी पर साया-ए- | + | ज़िन्दगी पर साया-ए-ज़ुल्फ़े-परीशाँ क्यों न हो |
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21:03, 25 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
फ़िक्र ही ठहरी तो दिल को फ़िक्रे-ख़ूबाँ क्यों न हो
ख़ाक होना है तो ख़ाके-कू-ए-जानाँ क्यों न हो
ज़ीस्त है जब मुस्तक़िल आवाराग़र्दी ही का नाम
अक़्ल वालो! फिर तवाफ़े-कू-ए-जानाँ क्यों न हो
इक न इक रिफ़'अत के आगे सज्दा लाज़िम है तो फिर
आदमी महवे-सजूद-ए-सिर्रे-ख़ूबाँ क्यों न हो
इक न इक ज़ुल्मत से जब वाबस्ता रहना है तो "ज़ोश"
ज़िन्दगी पर साया-ए-ज़ुल्फ़े-परीशाँ क्यों न हो