"बन्दगी से कभी नहीं मिलती / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर
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नीयते-आदमी नहीं मिलती। | नीयते-आदमी नहीं मिलती। | ||
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पर तेरी काफ़िरी नहीं मिलती। | पर तेरी काफ़िरी नहीं मिलती। | ||
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बासफ़ा दुश्मनी नहीं मिलती। | बासफ़ा दुश्मनी नहीं मिलती। | ||
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दिल को सच्ची खुशी नहीं मिलती। | दिल को सच्ची खुशी नहीं मिलती। | ||
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वो तरो-ताज़गी नहीं मिलती। | वो तरो-ताज़गी नहीं मिलती। | ||
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सहने-आलम की सरज़मीनों में | सहने-आलम की सरज़मीनों में | ||
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रंगे-दीवानगी-ए-आलम से | रंगे-दीवानगी-ए-आलम से | ||
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इश्क़ की बेख़ुदी नहीं मिलती। | इश्क़ की बेख़ुदी नहीं मिलती। | ||
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पर तेरी दोस्ती नहीं मिलती। | पर तेरी दोस्ती नहीं मिलती। | ||
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ऐसी शादी-ग़मी नहीं मिलती। | ऐसी शादी-ग़मी नहीं मिलती। | ||
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जिसमें आसूदगी नहीं मिलती। | जिसमें आसूदगी नहीं मिलती। | ||
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00:30, 12 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
बन्दगी से कभी नहीं मिलती
इस तरह ज़िन्दगी नहीं मिलती।
लेने से ताज़ो-तख़्त मिलता है
मागे से भीख भी नहीं मिलती।
ग़ैबदां है मगर ख़ुदा को भी
नीयते-आदमी नहीं मिलती।
वो जो इक चीज दारे-फ़ानी<ref>नाश होने वाली जगह, संसार</ref> में
वो तो जन्नत में भी नहीं मिलती।
एक दुनिया है मेरी नज़रों में
पर वो दुनिया अभी नहीं मिलती।
रात मिलती है तेरी जु्फ़ों में
पर वो आरास्तगी नहीं मिलती।
यूँ तो हर इक का हुस्न काफ़िर है
पर तेरी काफ़िरी नहीं मिलती।
बासफ़ा<ref>सच्ची, अंतरात्मा</ref> दोस्ती को क्या रोयें
बासफ़ा दुश्मनी नहीं मिलती।
आँख ही आँख है मगर मुझसे
नरगिसे-सामरी नहीं मिलती।
जब तक ऊँची न हो जमीर की लौ
आँख को रौशनी नहीं मिलती।
सोज़े-ग़म से न हो जो मालामाल
दिल को सच्ची खुशी नहीं मिलती।
रू - ए - जानाँ, कुजा<ref>कहाँ</ref> गुले-ख़ुल्द
वो तरो-ताज़गी नहीं मिलती।
तुझमें कोई कमी नहीं पाते
तुझमें कोई कमी नहीं मिलती।
है सिवा मेरे और नर्म नवा
पर वो आहिस्तगी नहीं मिलती।
यूँ तो पड़ती है एक आलम पर
निगहे-सरसरी नहीं मिलती।
सहने-आलम की सरज़मीनों में
दिल की उफ़्तादगी<ref>कमजोरी</ref> नहीं मिलती।
आह वो मुशकबेज़<ref>ख़ुशबूदार</ref> जुल्फ़े-सियाह
जिसकी हमसायगी नहीं मिलती।
इश्के़-आज़ुर्दा<ref>दुखी प्रेम</ref> बादशाहों को
तेरी आज़ुर्दगी नहीं मिलती।
ज़ुहदो-सौमो-सलातो-तक़वा<ref>परहेज़गारी, रोज़ा व नमाज़ व बुरी बातों से बचना</ref> से
इश्क़ की सादगी नहीं मिलती।
हुस्न जिसका भी है निराला है
पर तेरी तुर्फ़गी<ref>अनोखापन</ref> नहीं मिलती।
रंगे-दीवानगी-ए-आलम से
मेरी दीवानगी नहीं मिलती।
इल्म है दस्तियाब<ref>प्राप्त</ref> बाइफ़रात
इश्क़ की आगही नहीं मिलती।
दिल को बेइन्तेहा - ए- आगाही<ref>अपार ज्ञान</ref>
इश्क़ की बेख़ुदी नहीं मिलती।
आज रुतबुल्लेसाँ हैं हज़रते-दिल
आपकी बात ही नहीं मिलती।
दोस्तो, महज़ तब्आ - ए - मौज़ूँ से
दौलते - शाएरी नहीं मिलती।
है जो उन रसमसाते होंटों में
आँख को वो नमी नहीं मिलती।
निगहे - लुत्फ़ से जो मिलती है
हाय वो जिन्दगी नहीं मिलती।
यूँ तो मिलन को मिल गया है ख़ुदा
पर तेरी दोस्ती नहीं मिलती।
मेरी आवाज़ में जो मुज़मर<ref>निहित</ref> है
ऐसी शादी-ग़मी नहीं मिलती।
वो तो कोई ख़ुशी नहीं जिसमें
दर्द की चाशनी नहीं मिलती।
मेरे अशआर में सिरे से नदीम
रुजअते - क़हक़री नहीं मिलती।
बस वो भरपूर जिन्दगी है ’फ़िराक़’
जिसमें आसूदगी नहीं मिलती।