"मुतफ़र्रिक़ अशआर / सुरेश चन्द्र शौक़" के अवतरणों में अंतर
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जी करता है जंगल के इक गोशे <ref>टुकड़े</ref>को आबाद करें | जी करता है जंगल के इक गोशे <ref>टुकड़े</ref>को आबाद करें | ||
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धूनी रमाएँ,चिलम भरें और भोलेनाथ को याद करें | धूनी रमाएँ,चिलम भरें और भोलेनाथ को याद करें | ||
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− | + | वजहे—बरबादी-ए-दिल और बताई हमने | |
दास्ताँ तेरी किसी को न सुनाई हमने | दास्ताँ तेरी किसी को न सुनाई हमने | ||
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आग ख़ुद अपने नशेमन में लगाई हमने | आग ख़ुद अपने नशेमन में लगाई हमने | ||
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− | आती हैं याद तेरी तल्लवुन मिज़ाजियाँ | + | आती हैं याद तेरी तल्लवुन मिज़ाजियाँ<ref>बात से फिर जाना</ref> |
करता है बात जब भी कोई ऐतबार की | करता है बात जब भी कोई ऐतबार की | ||
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− | हर तरफ़ हैं ख़ैमाज़न पत्थरों के सौदागर | + | हर तरफ़ हैं ख़ैमाज़न<ref>डेरा डाले हुए |
+ | </ref> पत्थरों के सौदागर | ||
दिल का आइना ले कर जाओगे किधर यारो | दिल का आइना ले कर जाओगे किधर यारो | ||
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− | लग़ज़िशें साथ कहाँ तक देंगी | + | लग़ज़िशें<ref>डगमगाहटें</ref> साथ कहाँ तक देंगी |
हम भी इक रोज़ सँभल जायेंगे | हम भी इक रोज़ सँभल जायेंगे | ||
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परचों में आजकल की सियासत पे थे सवाल | परचों में आजकल की सियासत पे थे सवाल | ||
− | हम हो सके न पास | + | हम हो सके न पास किसी इम्तिहान में |
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− | ऐ मसीहा नफ़स ! तिरे सदक़े | + | ऐ मसीहा नफ़स<ref> जो हर बीमारी का इलाज कर सके, माशूक़ </ref> ! तिरे सदक़े |
हो सके तो मुझे भी अच्छा कर | हो सके तो मुझे भी अच्छा कर | ||
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− | + | बे-कैफ़—सी <ref>बे-मज़ा </ref> सौ सदियाँ उन लम्हों से कमतर हैं | |
वो लम्हे कि जो हमने इक साथ गुज़ारे हैं | वो लम्हे कि जो हमने इक साथ गुज़ारे हैं | ||
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− | वो तुमतुराक़, वो सजधज, वो शान है कि जो थी | + | वो तुमतुराक़<ref>धूमधाम्</ref> , वो सजधज, वो शान है कि जो थी |
हमारे दिल की वही आनबान है कि जो थी | हमारे दिल की वही आनबान है कि जो थी | ||
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− | अपनी तकमील के लिए ऐ ‘शौक़’ | + | अपनी तकमील<ref>पूर्ति</ref> के लिए ऐ ‘शौक़’ |
रेज़ा—रेज़ा बिखरना पड़ता है | रेज़ा—रेज़ा बिखरना पड़ता है | ||
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− | क्या | + | क्या 'शौक़ |
+ | ' तमन्ना हो मुझे ख़ुल्दे —बरीं<ref>स्वर्ग | ||
+ | </ref> की | ||
शिमला ही मिरा मेरे लिए ख़ुल्दे बरीं है. | शिमला ही मिरा मेरे लिए ख़ुल्दे बरीं है. | ||
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07:40, 6 सितम्बर 2009 का अवतरण
जी करता है जंगल के इक गोशे <ref>टुकड़े</ref>को आबाद करें
धूनी रमाएँ,चिलम भरें और भोलेनाथ को याद करें
~~
इक तिरी याद का आलम कि बदलता ही नहीं
वर्ना वक़्त आने पे हर चीज़ बदल जाती है
~~
रुक-सा गया है सिल्सिला-ए-नज़्मे-कायनात<ref>दुनिया के कामकाज का सिलसिला</ref>
थम-सी गई है गर्दिशे-दौराँ<ref>काल चक्र</ref> तिरे बग़ैर
~~
मत सोच कि आने में होगी तिरी रुस्वाई
यह देख तुझे दिल ने किस दिल से पुकारा है
~~
सोने लगता हूँ तो शानों <ref>काँधों</ref>को हिला देता है
नीम शब<ref>आधी रात</ref> को ये मुझे कौन सदा देता है ~~
आये थे तेरी बज़्म में किस इश्तियाक़<ref>शौक़</ref>से
किस बेदिली से हमको मगर लौटना पड़ा
~~
वो बेख़ुदी के लिए हो कि आगही के लिए
शराबे—ग़म तो ज़रूरी है ज़िन्दगी के लिए
~~
तुम्हीं ने तर्के—तअल्लुक़ <ref>सम्बन्ध परित्याग</ref>की ठान ली दिल में
तुम्हीं ने हाथ बढ़ाया था दोस्ती के लिए
~~
बहरे—हस्ती<ref> भवसागर</ref> से तलातुम<ref>बाढ़ </ref> से जो टकराते रहे
दर—हक़ीक़त राहते—साहिल<ref>किनारे पहुँचने का आराम</ref> वही पाते रहे
~~
वजहे—बरबादी-ए-दिल और बताई हमने
दास्ताँ तेरी किसी को न सुनाई हमने
~~
किससे ऐ ‘शौक़’ करें,अपनी तबाही का गिला
आग ख़ुद अपने नशेमन में लगाई हमने
~~
यह ज़ीस्त महब्बत में किस मोड़ पे ले आई
हम खुद ही तमाशा हैं और खुद ही तमाशाई
~~
दुश्मन वही निकले है जो अपना—सा लगे है
‘शौक़’ अब तो खरा सिक्का भी खोटा—सा लगे है
ऐ अजनबी! कुछ जान न पहचान है तुझ से
क्या जानिये क्यों फिर भी तू अपना—सा लगे है
~~
आती हैं याद तेरी तल्लवुन मिज़ाजियाँ<ref>बात से फिर जाना</ref>
करता है बात जब भी कोई ऐतबार की
हमने भी शौक़ उड़ाई थीं दामन की धज्जियाँ
हम पर भी मेह्र्बाँ थी कभी रुत बहार की
~~
सबब की पूछो तो ऐसा कोई सबब भी नहीं
बस इतना है कि ये दिल बेक़रार रहता है
ज़ीस्त=ज़िन्दगी; तल्लवुन—मिज़ाजियाँ=बात से फिर जाना
~~
हर तरफ़ हैं ख़ैमाज़न<ref>डेरा डाले हुए </ref> पत्थरों के सौदागर
दिल का आइना ले कर जाओगे किधर यारो
~~
लग़ज़िशें<ref>डगमगाहटें</ref> साथ कहाँ तक देंगी
हम भी इक रोज़ सँभल जायेंगे
~~
दिन गुज़रता है मिरा बुझ—बुझ कर
शाम को ख़ूब जगमगाता हूँ
~~
परचों में आजकल की सियासत पे थे सवाल
हम हो सके न पास किसी इम्तिहान में
~~
ऐ मसीहा नफ़स<ref> जो हर बीमारी का इलाज कर सके, माशूक़ </ref> ! तिरे सदक़े
हो सके तो मुझे भी अच्छा कर
~~
बे-कैफ़—सी <ref>बे-मज़ा </ref> सौ सदियाँ उन लम्हों से कमतर हैं
वो लम्हे कि जो हमने इक साथ गुज़ारे हैं
~~
वो तुमतुराक़<ref>धूमधाम्</ref> , वो सजधज, वो शान है कि जो थी
हमारे दिल की वही आनबान है कि जो थी
~~
अपनी तकमील<ref>पूर्ति</ref> के लिए ऐ ‘शौक़’
रेज़ा—रेज़ा बिखरना पड़ता है
~~
क्या 'शौक़ ' तमन्ना हो मुझे ख़ुल्दे —बरीं<ref>स्वर्ग </ref> की
शिमला ही मिरा मेरे लिए ख़ुल्दे बरीं है.