"बाग़ीचे के सिपाही / मार्टिन एस्पादा" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKAnooditRachna | ||
+ | |रचनाकार=अलेक्सान्दर ब्लोक | ||
+ | |संग्रह=यह आवाज़ कभी सुनी क्या तुमने / अलेक्सान्दर पूश्किन | ||
+ | }} | ||
+ | [[Category:अंग्रेज़ी भाषा]] | ||
+ | <Poem> | ||
+ | |||
''इएला नेग्रा, चीले, सितम्बर 1973'' | ''इएला नेग्रा, चीले, सितम्बर 1973'' | ||
तख़्ता-पलट के बाद, | तख़्ता-पलट के बाद, | ||
− | |||
नेरुदा के बागीचे में एक रात | नेरुदा के बागीचे में एक रात | ||
− | |||
सिपाही नमूदार हुए, | सिपाही नमूदार हुए, | ||
− | |||
पेड़ों से पूछ-ताछ करने के लिए लालटेनें उठाते, | पेड़ों से पूछ-ताछ करने के लिए लालटेनें उठाते, | ||
− | + | ठोकरें खाकर पत्थरों को कोसते। | |
− | ठोकरें खाकर पत्थरों को | + | |
− | + | ||
बेडरूम की खिड़की से देखे जाने पर वे | बेडरूम की खिड़की से देखे जाने पर वे | ||
− | |||
किनारों पर लूट मचाने के लिए | किनारों पर लूट मचाने के लिए | ||
− | |||
समंदर से लौटे, | समंदर से लौटे, | ||
− | + | डूब चुके जहाज़ों वाले मध्य-युगीन आक्रान्ताओं की तरह | |
− | डूब चुके | + | लग सकते थे। |
− | + | ||
− | लग सकते | + | |
कवि मर रहा था; | कवि मर रहा था; | ||
− | |||
कैंसर उनके शरीर के अन्दर से कौंध गया था | कैंसर उनके शरीर के अन्दर से कौंध गया था | ||
− | |||
और शोलों से लड़ने के लिए | और शोलों से लड़ने के लिए | ||
− | + | उन्हें छोड़ गया था बिस्तर पर। | |
− | उन्हें छोड़ गया था बिस्तर | + | |
इतने पर भी, जब लेफ्टिनेंट ने ऊपरी मंजिल पर धावा बोला, | इतने पर भी, जब लेफ्टिनेंट ने ऊपरी मंजिल पर धावा बोला, | ||
− | |||
नेरुदा ने उसका सामना किया और कहा: | नेरुदा ने उसका सामना किया और कहा: | ||
− | + | यहाँ तुम्हें सिर्फ एक ही चीज़ से ख़तरा है: कविता से। | |
− | यहाँ तुम्हें सिर्फ एक ही चीज़ से ख़तरा है: कविता | + | |
लेफ्टिनेंट ने अदब के साथ टोपी उतारकर | लेफ्टिनेंट ने अदब के साथ टोपी उतारकर | ||
− | |||
श्रीमान नेरुदा से माफ़ी माँगी | श्रीमान नेरुदा से माफ़ी माँगी | ||
+ | और सीढ़ियाँ उतरने लगा। | ||
− | + | पेड़ों पर के लालटेन एक एक करके बुझते चले गए। | |
− | + | ||
− | पेड़ों पर के लालटेन एक एक करके बुझते चले | + | |
− | + | ||
तीस सालों से | तीस सालों से | ||
− | |||
हम तलाश रहे हैं | हम तलाश रहे हैं | ||
− | |||
कोई दूसरा मंतर | कोई दूसरा मंतर | ||
− | |||
जो बागीचे से | जो बागीचे से | ||
− | + | सिपाहियों को ओझल कर दे। | |
− | सिपाहियों को ओझल कर | + | </poem> |
10:45, 7 सितम्बर 2009 का अवतरण
|
इएला नेग्रा, चीले, सितम्बर 1973
तख़्ता-पलट के बाद,
नेरुदा के बागीचे में एक रात
सिपाही नमूदार हुए,
पेड़ों से पूछ-ताछ करने के लिए लालटेनें उठाते,
ठोकरें खाकर पत्थरों को कोसते।
बेडरूम की खिड़की से देखे जाने पर वे
किनारों पर लूट मचाने के लिए
समंदर से लौटे,
डूब चुके जहाज़ों वाले मध्य-युगीन आक्रान्ताओं की तरह
लग सकते थे।
कवि मर रहा था;
कैंसर उनके शरीर के अन्दर से कौंध गया था
और शोलों से लड़ने के लिए
उन्हें छोड़ गया था बिस्तर पर।
इतने पर भी, जब लेफ्टिनेंट ने ऊपरी मंजिल पर धावा बोला,
नेरुदा ने उसका सामना किया और कहा:
यहाँ तुम्हें सिर्फ एक ही चीज़ से ख़तरा है: कविता से।
लेफ्टिनेंट ने अदब के साथ टोपी उतारकर
श्रीमान नेरुदा से माफ़ी माँगी
और सीढ़ियाँ उतरने लगा।
पेड़ों पर के लालटेन एक एक करके बुझते चले गए।
तीस सालों से
हम तलाश रहे हैं
कोई दूसरा मंतर
जो बागीचे से
सिपाहियों को ओझल कर दे।