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धूप / विनोद निगम
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15:27, 10 सितम्बर 2009
पर्वतों पर छन्द फिर बिखरा दिये हैं
लौटकर जाती घटाओं ने।
पेड़, फिर
पढ़्नें
पढ़नें
लगे हैं, धूप के अखबार
फुरसत से दिशाओं में
निकल फूलों के नशीले बार से
लड़्खड़ाती
लड़खड़ाती
है हवापाँव दो
पड़्ते
पड़ते
नहीं हैं ढंग से।
</poem>
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