"ऐसा कुछ भी नहीं / कैलाश वाजपेयी" के अवतरणों में अंतर
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+ | जागी थी जो कोमल चिंगारी , | ||
+ | वो कब उगी खिली कब मुरझाई | ||
+ | याद न ये रख पायी फुलवारी | | ||
+ | ओ समाधि पर धूप-धुआँ सुलगाने वाले सुन ! | ||
+ | ऐसा कुछ भी नहीं रूपश्री में कि सारा युग खंडहरों में खोया जाए |.... | ||
+ | चाहे मन में हो या राहों में | ||
+ | हर अँधियारा भाई-भाई है , | ||
+ | मंडप-मरघट जहाँ कहीं छायें | ||
+ | सब किरणों में सम गोराई है | | ||
+ | पर चन्दा को मन के दाग दिखाने वाले सुन ! | ||
+ | ऐसा कुछ भी नहीं चाँदनी में कि जलता मस्तक शबनम से धोया जाये | | ||
+ | साँप नहीं मरता अपने विष से | ||
+ | फिर मन कि पीड़ाओं का डर क्या , | ||
+ | जब धरती पर ही सोना है तो | ||
+ | गाँव-नगर-घर-भीतर- बाहर क्या | | ||
+ | प्यार बिना दुनिया को नर्क बताने वाले सुन ! | ||
+ | ऐसा कुछ भी नहीं बंधनों में कि सारी उम्र किसी का भी होया जाए | | ||
+ | सूरज कि सोनिल शहतीरों ने | ||
+ | साथ दिया कब अन्धी आँखों का , | ||
+ | जब अंगुलियाँ ही बेदम हों तो | ||
+ | दोष भला फिर क्या सूराखों का | | ||
+ | अपनी कमजोरी को किस्मत ठहराने वाले सुन ! | ||
+ | ऐसा कुछ भी नहीं कल्पना में कि भूखे रहकर फूलों पर सोया जाए | = | ||
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12:37, 11 सितम्बर 2009 का अवतरण
</poem>ऐसा कुछ भी नहीं जिंदगी में कि हर जानेवाली अर्थी पर रोया जाए | काँटों बिच उगी डाली पर कल जागी थी जो कोमल चिंगारी , वो कब उगी खिली कब मुरझाई याद न ये रख पायी फुलवारी | ओ समाधि पर धूप-धुआँ सुलगाने वाले सुन ! ऐसा कुछ भी नहीं रूपश्री में कि सारा युग खंडहरों में खोया जाए |.... चाहे मन में हो या राहों में हर अँधियारा भाई-भाई है , मंडप-मरघट जहाँ कहीं छायें सब किरणों में सम गोराई है | पर चन्दा को मन के दाग दिखाने वाले सुन ! ऐसा कुछ भी नहीं चाँदनी में कि जलता मस्तक शबनम से धोया जाये | साँप नहीं मरता अपने विष से फिर मन कि पीड़ाओं का डर क्या , जब धरती पर ही सोना है तो गाँव-नगर-घर-भीतर- बाहर क्या | प्यार बिना दुनिया को नर्क बताने वाले सुन ! ऐसा कुछ भी नहीं बंधनों में कि सारी उम्र किसी का भी होया जाए | सूरज कि सोनिल शहतीरों ने साथ दिया कब अन्धी आँखों का , जब अंगुलियाँ ही बेदम हों तो दोष भला फिर क्या सूराखों का | अपनी कमजोरी को किस्मत ठहराने वाले सुन ! ऐसा कुछ भी नहीं कल्पना में कि भूखे रहकर फूलों पर सोया जाए | </poem></poem>
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ऐसा कुछ भी नहीं
=ऐसा कुछ भी नहीं जिंदगी में कि हर जानेवाली अर्थी पर रोया जाए |
काँटों बिच उगी डाली पर कल जागी थी जो कोमल चिंगारी , वो कब उगी खिली कब मुरझाई याद न ये रख पायी फुलवारी | ओ समाधि पर धूप-धुआँ सुलगाने वाले सुन ! ऐसा कुछ भी नहीं रूपश्री में कि सारा युग खंडहरों में खोया जाए |.... चाहे मन में हो या राहों में हर अँधियारा भाई-भाई है , मंडप-मरघट जहाँ कहीं छायें सब किरणों में सम गोराई है | पर चन्दा को मन के दाग दिखाने वाले सुन ! ऐसा कुछ भी नहीं चाँदनी में कि जलता मस्तक शबनम से धोया जाये | साँप नहीं मरता अपने विष से फिर मन कि पीड़ाओं का डर क्या , जब धरती पर ही सोना है तो गाँव-नगर-घर-भीतर- बाहर क्या | प्यार बिना दुनिया को नर्क बताने वाले सुन ! ऐसा कुछ भी नहीं बंधनों में कि सारी उम्र किसी का भी होया जाए | सूरज कि सोनिल शहतीरों ने साथ दिया कब अन्धी आँखों का , जब अंगुलियाँ ही बेदम हों तो दोष भला फिर क्या सूराखों का | अपनी कमजोरी को किस्मत ठहराने वाले सुन ! ऐसा कुछ भी नहीं कल्पना में कि भूखे रहकर फूलों पर सोया जाए | = ]]]]