भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दोहे / आनंद कृष्ण" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आनंद कृष्ण }} <poem> निकल पड़ा था भोर से पूरब का मज़द...)
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=आनंद कृष्ण  
 
|रचनाकार=आनंद कृष्ण  
 
}}
 
}}
 +
[[Category: दोहे]]
 
<poem>
 
<poem>
 
निकल पड़ा था भोर से पूरब का मज़दूर
 
निकल पड़ा था भोर से पूरब का मज़दूर

23:06, 9 नवम्बर 2009 का अवतरण

निकल पड़ा था भोर से पूरब का मज़दूर
दिन भर बोई धूप को लौटा थक कर चूर।

पिघले सोने सी कहीं बिखरी पीली धूप
कहीं पेड़ की छाँव में इठलाता है रूप।

तपती धरती जल रही, उर वियोग की आग
मेघा प्रियतम के बिना, व्यर्थ हुए सब राग।

झरते पत्ते कर रहे, आपस में यों बात-
जीवन का यह रूप भी, लिखा हमारे माथ।

क्षीणकाय निर्बल नदी, पडी रेट की सेज
"आँचल में जल नहीं-" इस, पीडा से लबरेज़।

दोपहरी बोझिल हुई, शाम हुई निष्प्राण.
नयन उनींदे बुन रहे, सपनों भरे वितान।

उजली-उजली रात के, अगणित तारों संग.
मंद पवन की क्रोड़ में, उपजे प्रणय-प्रसंग।