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पहला मानसून / तरुण भटनागर

134 bytes removed, 15:01, 14 सितम्बर 2009
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'''1
उसका इंतजार इंतज़ार था।
हमारी इच्छा,
हमारा स्वाथर्स्वार्थ,सो किया उसका इंतजार।इंतज़ार।पर हजारों हज़ारों मील दूर से,समुदर् समुद्र की नम आदर्र् आर्द्र हवा,
काले घने बादल,
चक्रवात,
घूमते बवण्डर,
वह कभी भी इसलिए नहीं लाया,
कि हम उसका इंतजार इंतज़ार करते हैं।
बस एक नियम है,
मानसून के आने का नियम।
वह नहीं आता है,
गमीर् गर्मी से झुलसे पेड़ों के लिए,
महीनों से चुप आंगन की टीन की छत के लिए,
धूल में पड़े बीजों के लिए,
आकाश की आेर मंुह ओर मुँह कर,बंूदों बूंदों के स्पशर् स्पर्श से खिलखिलाने वाले चेहरों के लिए,
घर की नंगी दीवार के लिए,
जो उसे देख हड़बड़ाती हुई काही की साड़ी पहन लेती है,
़ ़ ़ ़ ़000
अगर वह इनके लिए आता,
धरती आकाश,
किसी का भी साथी नहीं।
वह बरसकर खत्म ख़त्म हो जायेगा,बिना किसी हिसाब -किताब के,क्योंिक क्योंकि ऐसा ही नियम है।
'''2
मैंने बहुत लंबी लम्बी यात्रा की है।बंबई से जयपुर, फिर दिल्ली, फिर झांसीझाँसी, फिर कलकत्ता ़ ़ ़...आैर और वह बादल,
पूरे समय मेरे साथ रहा है।
एक -सा फुरफुराता,एक -सा बरसता, गरजता ़ ़ ़।...।
देखने का दोष नहीं है,
वह वास्तव में एक -सा रहता है।
वह भेद नहीं कर पाया है -
गंगा आैर और सीक्यांग में,हिन्दी, तिमल, ़ ़ ़आैर तमिल... और फिलीपीनो में,दिल्ली आैर और हांगकांग में,नािडर्क आैर नार्डिक और मंगोलाइट में,कुतार् आैर और बाली के खुले वक्षों में,सेण्ट थामस माउंड आैर और अंकोरवाट के शिव में,नंगे आेंगओंग, जावा आैर और सिंगापुर के सभ्य सुसंस्कृत में,मुझमें आैर और रिजया की बकरी में,हरी घास आैर और सूखे पत्तों में, ़ ़ ़़ ़ ़ ़.....
वह बहुत आगे निकल गया है,
बहुत आगे,
जहां जहाँ हम नहीं ़ ़ ़।...।
तभी तो,
बम्बई, जयपुर, दिल्ली, झांसीझाँसी, कलकत्ता तक,
मैं उसे पछाड़ नहीं पाया।
शायद,
पूरी धरती,
आैर और पूरे आकाश की,
यात्रा करने के बाद भी,
मैं उसे पछाड नहीं पाता।
'''3
वह काला बादल,
कड़वा अधूरा मूड,
पुराना दृश्य,
पूरी जमीनज़मीन,
अंधेरे में कानों में कहलवा सकता है,
बहुत दिनों से दबी बात,
़ ़ ़ ़ ़ ़ ़..........
पर कुछ नहीं कर पाता है,
आकाश आैर और चांद -तारों का,बस उन्हें ढं़क ढँक देता है।ढंक ढँक देता है,बरसों से जागते चांद -तारों को,
हमेशा व्यस्त आकाश को।
ताकि उकसाये ढंकी ढँकी चांदनी,क्या होती कल से ज्यादा चमकाीलीचमकीली?
क्या हमेशा की तरह ठण्डी?
क्या उसमें ज्यादा ज़्यादा चमकते वरबीना के फूल? ़ ़ ़ ़ ़़.....
ताकि दिख ना पायेपाए,
मनचाहा आकाश,
आैर और वे चांद -तारे,
जो मुझे घसीटते हैं,
मेरी यादों में।
यंूयूँ,
वह मुझे,
बार-बार बचाता है।
'''4
वह समुदर् समुद्र से आता है,जमीन ज़मीन के लिए।
वह बहुत ऊपर तैरता है,
नीचे के लिए।
वह दूर दिखता है,
हथेली पर गिरती बंूदों बूंदों के लिए।वह खूब ख़ूब गरजता है,
भीतर की चुप्पी के लिए।
वह ठण्डा है,
चंपा को भिगोकर आग के लिए।
वह सूरज को ढं़क ढंक देता है,
मेरे कमरे की ठण्ड के लिए।
वह दूर चमकता है,
हाथ को हाथ सुझाने के लिए।
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