"तस्वीर बदलती रही / राकेश खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर
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हम हुए अजनबी खुद से भी आपकी | हम हुए अजनबी खुद से भी आपकी | ||
− | + | सिर्फ तस्वीर ही बस बदलती रही | |
आईने की परेशानियों का सबब | आईने की परेशानियों का सबब | ||
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इक ऊहापोह में थी उलझ रह गई | इक ऊहापोह में थी उलझ रह गई | ||
− | + | रश्मियां बर्फ जैसे पिघलती रही | |
− | गांव की चंद | + | गांव की चंद पगडंडि़यों के सिरे |
आंख मलते हुए स्वप्न बुनते रहे | आंख मलते हुए स्वप्न बुनते रहे | ||
फड़फड़ाते हुए पृष्ठ इतिहास के | फड़फड़ाते हुए पृष्ठ इतिहास के | ||
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मन्नतों के मगर जल न पाए दिए | मन्नतों के मगर जल न पाए दिए | ||
− | + | औ' समय की गुफ़ा में किरण आस की | |
− | रास्ता | + | रास्ता ढूंढ़ती बस भटकती रही |
हम अभी तक खड़े हैं उसी मोड़ पर | हम अभी तक खड़े हैं उसी मोड़ पर | ||
तुम जहां थे रुके एक पल के लिए | तुम जहां थे रुके एक पल के लिए | ||
मुट्ठियों में हैं अवशेष, शपथों के जो | मुट्ठियों में हैं अवशेष, शपथों के जो | ||
− | थीं उठाईं गई | + | थीं उठाईं गई उम्र् भर के लिए |
दृष्टि का मेरा आकाश सिमटा हुआ | दृष्टि का मेरा आकाश सिमटा हुआ | ||
कुछ न दिख पाता इक दायरे के परे | कुछ न दिख पाता इक दायरे के परे | ||
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मंत्र भी प्राथर्ना के हैं सहमे डरे | मंत्र भी प्राथर्ना के हैं सहमे डरे | ||
− | शेष बाकी नहीं | + | शेष बाकी नहीं गर्द् भी राह में |
− | सीटियां बस | + | सीटियां बस हवाओं की बजती रहीं |
नित बदलते हुए विश्व चलता रहा | नित बदलते हुए विश्व चलता रहा | ||
कोई ठहराव गति में नहीं आ सका | कोई ठहराव गति में नहीं आ सका | ||
− | + | जि़दगी दौड़ते दौड़ते चल रही | |
एक पल भी नहीं हाथ में आ सका | एक पल भी नहीं हाथ में आ सका | ||
भावनाएं बिछी रह गईं राह सी | भावनाएं बिछी रह गईं राह सी | ||
− | + | और संबंध पहियों से चलते रहे | |
आस्था ने उगाए जो सूरज सभी | आस्था ने उगाए जो सूरज सभी | ||
भोर को सांझ करके निगलते रहे | भोर को सांझ करके निगलते रहे | ||
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हम बदल कर हुए अजनबी आपकी | हम बदल कर हुए अजनबी आपकी | ||
− | + | सिर्फ तस्वीर ही बस बदलती रही | |
तुमने जिसको सुना गूंज थी मौन की | तुमने जिसको सुना गूंज थी मौन की | ||
जो कि उजड़ी बहारों में छुप रह गई | जो कि उजड़ी बहारों में छुप रह गई | ||
आगमन की प्रतीक्षा मदन की लिए | आगमन की प्रतीक्षा मदन की लिए | ||
कोंपलें आंख खोले हुए रह गईं | कोंपलें आंख खोले हुए रह गईं | ||
− | टूटे शीशे की | + | टूटे शीशे की आवाज संगीत बन |
लहिरयों पे हवा की बिखरती रही | लहिरयों पे हवा की बिखरती रही | ||
गंध जो संदली थी हवा में उड़ी | गंध जो संदली थी हवा में उड़ी | ||
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पत्थरों में उगी नागफ़िनयां रहीं | पत्थरों में उगी नागफ़िनयां रहीं | ||
आप भर्म से उन्हें फूल कहते रहे | आप भर्म से उन्हें फूल कहते रहे | ||
− | + | स्रोत सपनों के खंडहर से निकले हुए | |
नैन के निझर्रों से टपकते रहे | नैन के निझर्रों से टपकते रहे | ||
− | आईने पर जमी | + | आईने पर जमी गर्द् में आईना |
बिंब अपना नहीं देख पाया कभी | बिंब अपना नहीं देख पाया कभी | ||
हां नज़र के भरम में उलझते हुए | हां नज़र के भरम में उलझते हुए | ||
− | तुम रहे, वे रहे | + | तुम रहे, वे रहे और रहे हैं सभी |
एक वह मिथ्या भर्म तोड़ने के लिए | एक वह मिथ्या भर्म तोड़ने के लिए | ||
कोशिशें लेखनी नित्य करती रही | कोशिशें लेखनी नित्य करती रही | ||
हम बदल कर हुए अजनबी आपकी | हम बदल कर हुए अजनबी आपकी | ||
− | + | सिर्फ् तस्वीर ही इक बदलती रही | |
रात जैसे तो मन के अंधेरे रहे | रात जैसे तो मन के अंधेरे रहे | ||
− | + | और चेतन को संशय हैं घेरे रहे | |
हो गईं बंद पत्तों की जब जालियां | हो गईं बंद पत्तों की जब जालियां | ||
− | रोशनी क्या छनी | + | रोशनी क्या छनी और बरसात क्या |
मृग तो तृष्णा के पीछे भटकता रहा | मृग तो तृष्णा के पीछे भटकता रहा | ||
− | + | और ये सत्य मन में अटकता रहा | |
− | क्यों छलावों में लिपटी रही | + | क्यों छलावों में लिपटी रही जि़दगी |
स्वप्न क्यों हर कली सा चटकता रहा | स्वप्न क्यों हर कली सा चटकता रहा | ||
कौन सा है निमित साथ लेकर जिसे | कौन सा है निमित साथ लेकर जिसे | ||
− | + | उम्र् धड़कन से बंध कर ढुलकती रही | |
हम हुए अजनबी खुद से भी आपकी | हम हुए अजनबी खुद से भी आपकी | ||
− | + | सिर्फ् तस्वीर ही इक बदलती रही | |
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15:00, 15 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
हम हुए अजनबी खुद से भी आपकी
सिर्फ तस्वीर ही बस बदलती रही
आईने की परेशानियों का सबब
क्या मुखौटे थे मेरे या मैं खुद ही था
अक्स जिनको दिखाता रहा आईना
एक कोई भी उनमें से मेरा न था
अक्स के अक्स का अक्स महसूसती
अपने ही अक्स में आईने की नज़र
बिंब कितने प्रतीक्षित रहे मोड़ पर
ख़त्म हो जाए असमंजसों का सफ़र
इक ऊहापोह में थी उलझ रह गई
रश्मियां बर्फ जैसे पिघलती रही
गांव की चंद पगडंडि़यों के सिरे
आंख मलते हुए स्वप्न बुनते रहे
फड़फड़ाते हुए पृष्ठ इतिहास के
इक भविष्यत को रंगीन करते रहे
काल के चक्र से हाथ की रेख का
न समन्वय हुआ एक पल के लिए
धागे बांधे सदा बरगदों के तले
मन्नतों के मगर जल न पाए दिए
औ' समय की गुफ़ा में किरण आस की
रास्ता ढूंढ़ती बस भटकती रही
हम अभी तक खड़े हैं उसी मोड़ पर
तुम जहां थे रुके एक पल के लिए
मुट्ठियों में हैं अवशेष, शपथों के जो
थीं उठाईं गई उम्र् भर के लिए
दृष्टि का मेरा आकाश सिमटा हुआ
कुछ न दिख पाता इक दायरे के परे
दीप थाली में नज़रें चुराता रहा
मंत्र भी प्राथर्ना के हैं सहमे डरे
शेष बाकी नहीं गर्द् भी राह में
सीटियां बस हवाओं की बजती रहीं
नित बदलते हुए विश्व चलता रहा
कोई ठहराव गति में नहीं आ सका
जि़दगी दौड़ते दौड़ते चल रही
एक पल भी नहीं हाथ में आ सका
भावनाएं बिछी रह गईं राह सी
और संबंध पहियों से चलते रहे
आस्था ने उगाए जो सूरज सभी
भोर को सांझ करके निगलते रहे
आप भी साथ बदलें हमारे यहीं
साध बस एक सीने में पलती रही
हम बदल कर हुए अजनबी आपकी
सिर्फ तस्वीर ही बस बदलती रही
तुमने जिसको सुना गूंज थी मौन की
जो कि उजड़ी बहारों में छुप रह गई
आगमन की प्रतीक्षा मदन की लिए
कोंपलें आंख खोले हुए रह गईं
टूटे शीशे की आवाज संगीत बन
लहिरयों पे हवा की बिखरती रही
गंध जो संदली थी हवा में उड़ी
पेड़ की पित्तयों में सिमटती रही
इक नज़र में न बदली, मगर दूसरी
में वो तस्वीर फिर भी बदलती रही
पत्थरों में उगी नागफ़िनयां रहीं
आप भर्म से उन्हें फूल कहते रहे
स्रोत सपनों के खंडहर से निकले हुए
नैन के निझर्रों से टपकते रहे
आईने पर जमी गर्द् में आईना
बिंब अपना नहीं देख पाया कभी
हां नज़र के भरम में उलझते हुए
तुम रहे, वे रहे और रहे हैं सभी
एक वह मिथ्या भर्म तोड़ने के लिए
कोशिशें लेखनी नित्य करती रही
हम बदल कर हुए अजनबी आपकी
सिर्फ् तस्वीर ही इक बदलती रही
रात जैसे तो मन के अंधेरे रहे
और चेतन को संशय हैं घेरे रहे
हो गईं बंद पत्तों की जब जालियां
रोशनी क्या छनी और बरसात क्या
मृग तो तृष्णा के पीछे भटकता रहा
और ये सत्य मन में अटकता रहा
क्यों छलावों में लिपटी रही जि़दगी
स्वप्न क्यों हर कली सा चटकता रहा
कौन सा है निमित साथ लेकर जिसे
उम्र् धड़कन से बंध कर ढुलकती रही
हम हुए अजनबी खुद से भी आपकी
सिर्फ् तस्वीर ही इक बदलती रही