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"लड़ते-लड़ते मन हार गया / राम सनेहीलाल शर्मा 'यायावर'" के अवतरणों में अंतर

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यह जीवन है संग्राम प्रबल
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लड़ना ही है प्रतिक्षण प्रतिपल
  
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वह हार गया रण में जिस का लड़ते–लड़ते मन हार गया
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संख्या बल कभी नहीं लड़ता
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लड़ते हैं सौ या पाँच कहाँ
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सच के पथ पर निर्भीक बढ़ो
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नहीं साँच को आँच यहाँ
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जो चक्रव्यूह गढ़ते, उन के माथे पर लिखा मरण देखा
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जो सुई नोंक भर भूमि न दें, उन का भी दीन क्षरण देखा
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छल के साथ छली का तन, मन, चिंतन, अशुभ विचार गया
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वह हार गया रण में जिस का लड़ते–लड़ते मन हार गया
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संकल्पों से टकराने में
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हर बार झिझकती झंझायें
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झरने की तूफ़ानी गति को
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कब रोक सकीं पथ–बाधायें
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जो लड़ते हैं वे कल्पकथा बनकर जीते इतिहासों में
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सदियों के माथे का चुंबन बनकर जीते अहसासों में
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कवि का संवेदन विनत हुआ जब–जब भी उनके द्वार गया
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वह हार गया रण में जिसका लड़ते–लड़ते मन हार गया
 
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18:57, 15 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण

यह जीवन है संग्राम प्रबल
लड़ना ही है प्रतिक्षण प्रतिपल

जिस ने मन में गीता गुनली वह हार–जीत के पार गया
वह हार गया रण में जिस का लड़ते–लड़ते मन हार गया

संख्या बल कभी नहीं लड़ता
लड़ते हैं सौ या पाँच कहाँ
सच के पथ पर निर्भीक बढ़ो
नहीं साँच को आँच यहाँ

जो चक्रव्यूह गढ़ते, उन के माथे पर लिखा मरण देखा
जो सुई नोंक भर भूमि न दें, उन का भी दीन क्षरण देखा
छल के साथ छली का तन, मन, चिंतन, अशुभ विचार गया
वह हार गया रण में जिस का लड़ते–लड़ते मन हार गया

संकल्पों से टकराने में
हर बार झिझकती झंझायें
झरने की तूफ़ानी गति को
कब रोक सकीं पथ–बाधायें

जो लड़ते हैं वे कल्पकथा बनकर जीते इतिहासों में
सदियों के माथे का चुंबन बनकर जीते अहसासों में
कवि का संवेदन विनत हुआ जब–जब भी उनके द्वार गया
वह हार गया रण में जिसका लड़ते–लड़ते मन हार गया