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"बंधक सुबहें / अजय पाठक" के अवतरणों में अंतर

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बंधक सुबहें  
 
बंधक सुबहें  
 
 
गिरवी अपनी  
 
गिरवी अपनी  
 
 
साँझ दुपहरी है ।  
 
साँझ दुपहरी है ।  
 
 
  
 
बड़ी देर तक रात व्यथा से  
 
बड़ी देर तक रात व्यथा से  
 
 
कर सोये संवाद,  
 
कर सोये संवाद,  
 
 
रोटी की चिंता ने छीना  
 
रोटी की चिंता ने छीना  
 
 
प्रातः का अवसाद,  
 
प्रातः का अवसाद,  
 
 
भूख मीत है जिससे  
 
भूख मीत है जिससे  
 
 
अपनी छनती गहरी है ।  
 
अपनी छनती गहरी है ।  
 
 
  
 
रक़म सैकड़ा लिया कभी था  
 
रक़म सैकड़ा लिया कभी था  
 
 
की उसकी भरपाई,  
 
की उसकी भरपाई,  
 
 
सात महीने किया मज़ूरी  
 
सात महीने किया मज़ूरी  
 
 
तब जाकर हो पाई,
 
तब जाकर हो पाई,
 
 
कुछ बोलें तो अपने हिस्से  
 
कुछ बोलें तो अपने हिस्से  
 
 
कोर्ट कचहरी है ।  
 
कोर्ट कचहरी है ।  
 
 
  
 
टूटी मड़ई जिसको अपना  
 
टूटी मड़ई जिसको अपना  
 
 
घर कह लेते हैं,  
 
घर कह लेते हैं,  
 
 
किसी तरह कुछ ओढ़-बिछाकर  
 
किसी तरह कुछ ओढ़-बिछाकर  
 
 
हम रह लेते हैं,  
 
हम रह लेते हैं,  
 
 
जीवन जैसे टूटी-फूटी  
 
जीवन जैसे टूटी-फूटी  
 
 
एक मसहरी है ।
 
एक मसहरी है ।
 
 
  
 
मालिक लोगों के कहने पर  
 
मालिक लोगों के कहने पर  
 
 
देते रहे अँगूठा,  
 
देते रहे अँगूठा,  
 
 
वक़्त पड़ा तो हम ही साबित  
 
वक़्त पड़ा तो हम ही साबित  
 
 
हो जाते हैं झूठा,
 
हो जाते हैं झूठा,
 
 
निरर्थक है फ़रियाद  
 
निरर्थक है फ़रियाद  
 
 
व्यवस्था अंधी-बहरी है ।   
 
व्यवस्था अंधी-बहरी है ।   
 
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23:40, 15 सितम्बर 2009 का अवतरण

बंधक सुबहें
गिरवी अपनी
साँझ दुपहरी है ।

बड़ी देर तक रात व्यथा से
कर सोये संवाद,
रोटी की चिंता ने छीना
प्रातः का अवसाद,
भूख मीत है जिससे
अपनी छनती गहरी है ।

रक़म सैकड़ा लिया कभी था
की उसकी भरपाई,
सात महीने किया मज़ूरी
तब जाकर हो पाई,
कुछ बोलें तो अपने हिस्से
कोर्ट कचहरी है ।

टूटी मड़ई जिसको अपना
घर कह लेते हैं,
किसी तरह कुछ ओढ़-बिछाकर
हम रह लेते हैं,
जीवन जैसे टूटी-फूटी
एक मसहरी है ।

मालिक लोगों के कहने पर
देते रहे अँगूठा,
वक़्त पड़ा तो हम ही साबित
हो जाते हैं झूठा,
निरर्थक है फ़रियाद
व्यवस्था अंधी-बहरी है ।