"अपने बच्चे से / नंद भारद्वाज" के अवतरणों में अंतर
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04:15, 21 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
डरो नहीं मेरे बच्चे !
सारे सपने डराऊ नहीं होते
न अंधेरे में ही इतना दम
कि तुम्हारी मासूम दुनिया को
तुमसे छुपा कर रख सके !
सवेरा होते ही
फिर ठण्डी हवा में तैरने लगेगी
ताज़ा फूलों की गंध,
फिर आबाद हो उठेंगी गलियाँ
चौक में उभरेगा नन्हे साथियों का शोर
सूरज की पहली किरण के साथ
फिर फूटेंगे ख़ुशी के असंख्य फव्वारे !
तुम्हारी नन्हीं आँखों के सामने घूमता
ये दुनिया का गोल आकार
तुम्हारी इच्छाओं से बहुत छोटा है -
दुनिया को अगर तुमने
एक गेंद की तरह समझा
और खेलना चाहा है
तो इसमें डरने की कोई बात नहीं,
बस इतना भर ख़याल रहे -
गेंद की हिफ़ाज़त करना
तुम्हारा अपना ज़िम्मा है !
वक़्त कभी ठहरता नहीं है
मेरे बच्चे !
न करता है किसी के लिए इन्तज़ार
वह निरन्तर चलता रहता है
हमारी साँस की तरह -
आग, पानी और हवा से
हमारी पहचान कराता हुआ
वह अनायास ही शरीक हो जाता है
हमारी कोमल इच्छाओं में
और फिर रफ्त: रफ्त:
हर मोड़ पर
आगाह करता है आगामी ख़तरों से -
डरावने सपनों का असली अर्थ बताता है !
यह दुनिया
जैसी और जिस रूप में
हमें जीने को मिली है,
उस पर अफ़सोस करना बेमानी है -
हमने नहीं बिगाड़ी इसकी शक्ल
न थोपी किसी पर अपनी इच्छाएँ,
जब चारों तरफ़ से
सुलग रही हो आग,
हालात से निरापद बैठे रहना
यों आसान नहीं है -
उफ़नती धारा के विपरीत
तैर कर जाना यों उस पार
फ़कत् दिखावा नहीं है
अच्छे अभ्यास का,
महज तमाशा नहीं है
निकल आना सड़कों पर
सरेआम
और अंधेरगर्दी के खिलाफ़
खड़े रहना यों मशालें तान कर !
मैं जानता हूँ :
यह वक़्त
तुम्हें उस आग में
झोंक देने का नहीं है
लेकिन उसकी आँच से
बचाये रखना भी
कम मुश्किल नहीं है काम -
अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद
अक्सर झुलस जाया करते हैं
तुम्हारे पाँव
और चीख़ उठते हो तुम
किसी डराऊ सपने के अधबीच
कच्ची नींद में !
यह सच है मेरे बच्चे !
कि ये आदिम अंधेरा
हमारे काबू से बहुत बाहर है,
बहुत मामूली-सी है इतिहास में
एक पिता के रूप में मेरी पहचान -
बहुत नामालूम-सा है
अपनी कारगुजारी का संसार !
बावजूद इसके
मुझ पर भरोसा रक्खो मेरे बच्चे !
सपनों की इस त्रासद अंधेरी दुनिया में
मैं हरवक़्त तुम्हारे साथ होता हूँ !