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"अपाहिज व्यथा / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर
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08:07, 3 जून 2011 का अवतरण
अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।
ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।
अँधेरे में कुछ ज़िंदगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।
वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।
तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।
मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।
समालोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।