भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आस्था-2 / राजीव रंजन प्रसाद" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो
 
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
हमारे बीच बहुत कुछ टूट गया है
 
हमारे बीच बहुत कुछ टूट गया है
 
हमारे भीतर बहुत कुछ छूट गया है
 
हमारे भीतर बहुत कुछ छूट गया है
कैसे दर्द नें तराश कर बुत बना दिया हमें
+
कैसे दर्द ने तराश कर बुत बना दिया हमें
और तनहाई हमसे लिपट कर
+
और तन्हाई  हमसे लिपट कर
हमारे दिलों की हथेलियाँ मिलानें को तत्पर है
+
हमारे दिलों की हथेलियाँ मिलाने को तत्पर है
 
पत्थर फिर बोलेंगे
 
पत्थर फिर बोलेंगे
 
ये कैसी आस्था?
 
ये कैसी आस्था?
 
</poem>
 
</poem>

19:10, 9 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

हमारे बीच बहुत कुछ टूट गया है
हमारे भीतर बहुत कुछ छूट गया है
कैसे दर्द ने तराश कर बुत बना दिया हमें
और तन्हाई हमसे लिपट कर
हमारे दिलों की हथेलियाँ मिलाने को तत्पर है
पत्थर फिर बोलेंगे
ये कैसी आस्था?