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"पंथ होने दो अपरिचित / महादेवी वर्मा" के अवतरणों में अंतर

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पंथ होने दो अपरिचित
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पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला
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और होंगे चरण हारे,
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घेर ले छाया अमा बन
अन्य हैं जो लौटते दे शूल को संकल्प सारे;
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आज कंजल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन
दुखव्रती निर्माण-उन्मद
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यह अमरता नापते पद;
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बाँध देंगे अंक-संसृति से तिमिर में स्वर्ण बेला
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और होंगे नयन सूखे
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी;
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आज जिसपर प्यार विस्मृत ,
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आर्द्र चितवन में यहां
मैं लगाती चल रही नित,
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मोतियों की हाट औ, चिनगारियों का एक मेला
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यह अमरता नापते पद
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बांध देंगे अंक-संसृति
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से तिमिर में स्वर्ण बेला
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दूसरी होगी कहानी
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शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी
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मैं लगाती चल रही नित
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चिनगारियों का एक मेला
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हास का मधु-दूत भेजो
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रोष की भ्रू-भंगिमा पतझार को चाहे सहे जो
  
हास का मधु-दूत भेजो,
 
रोष की भ्रूभंगिमा पतझार को चाहे सहेजो;
 
 
ले मिलेगा उर अचंचल
 
ले मिलेगा उर अचंचल
वेदना-जल स्वप्न-शतदल,
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वेदना-जल, स्वप्न-शतदल
जान लो, वह मिलन-एकाकी विरह में है दुकेला
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जान लो वह मिलन एकाकी
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विरह में है दुकेला!
 
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03:16, 14 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला

घेर ले छाया अमा बन
आज कंजल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन

और होंगे नयन सूखे
तिल बुझे औ’ पलक रूखे
आर्द्र चितवन में यहां
शत विद्युतों में दीप खेला

अन्य होंगे चरण हारे
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे

दुखव्रती निर्माण उन्मद
यह अमरता नापते पद
बांध देंगे अंक-संसृति
से तिमिर में स्वर्ण बेला

दूसरी होगी कहानी
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी

आज जिस पर प्रलय विस्मित
मैं लगाती चल रही नित
मोतियों की हाट औ’
चिनगारियों का एक मेला

हास का मधु-दूत भेजो
रोष की भ्रू-भंगिमा पतझार को चाहे सहे जो

ले मिलेगा उर अचंचल
वेदना-जल, स्वप्न-शतदल
जान लो वह मिलन एकाकी
विरह में है दुकेला!