भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"प्रपात के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKGlobal}} | {{KKGlobal}} | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
− | |रचनाकार = सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" | + | |रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" |
+ | |अनुवादक= | ||
+ | |संग्रह= | ||
}} | }} | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
− | अंचल के चंचल क्षुद्र प्रपात ! | + | <poem> |
− | मचलते हुए निकल आते हो; | + | अंचल के चंचल क्षुद्र प्रपात ! |
− | उज्जवल! घन-वन-अंधकार के साथ | + | मचलते हुए निकल आते हो; |
− | खेलते हो क्यों? क्या पाते हो ? | + | उज्जवल! घन-वन-अंधकार के साथ |
− | अंधकार पर इतना प्यार, | + | खेलते हो क्यों? क्या पाते हो ? |
− | क्या जाने यह बालक का अविचार | + | |
− | बुद्ध का या कि साम्य-व्यवहार ! | + | अंधकार पर इतना प्यार, |
− | तुम्हारा करता है गतिरोध | + | क्या जाने यह बालक का अविचार |
− | पिता का कोई दूत अबोध- | + | बुद्ध का या कि साम्य-व्यवहार ! |
− | किसी पत्थर से टकराते हो | + | तुम्हारा करता है गतिरोध |
− | फिरकर ज़रा ठहर जाते हो; | + | पिता का कोई दूत अबोध- |
− | उसे जब लेते हो पहचान- | + | किसी पत्थर से टकराते हो |
− | समझ जाते हो उस जड़ का सारा अज्ञान, | + | फिरकर ज़रा ठहर जाते हो; |
− | फूट पड़ती है ओंठों पर तब मृदु मुस्कान; | + | |
− | बस अजान की ओर इशारा करके चल देते हो, | + | उसे जब लेते हो पहचान- |
+ | समझ जाते हो उस जड़ का सारा अज्ञान, | ||
+ | फूट पड़ती है ओंठों पर तब मृदु मुस्कान; | ||
+ | बस अजान की ओर इशारा करके चल देते हो, | ||
भर जाते हो उसके अन्तर में तुम अपनी तान । | भर जाते हो उसके अन्तर में तुम अपनी तान । | ||
+ | </poem> |
18:34, 28 जनवरी 2021 के समय का अवतरण
अंचल के चंचल क्षुद्र प्रपात !
मचलते हुए निकल आते हो;
उज्जवल! घन-वन-अंधकार के साथ
खेलते हो क्यों? क्या पाते हो ?
अंधकार पर इतना प्यार,
क्या जाने यह बालक का अविचार
बुद्ध का या कि साम्य-व्यवहार !
तुम्हारा करता है गतिरोध
पिता का कोई दूत अबोध-
किसी पत्थर से टकराते हो
फिरकर ज़रा ठहर जाते हो;
उसे जब लेते हो पहचान-
समझ जाते हो उस जड़ का सारा अज्ञान,
फूट पड़ती है ओंठों पर तब मृदु मुस्कान;
बस अजान की ओर इशारा करके चल देते हो,
भर जाते हो उसके अन्तर में तुम अपनी तान ।