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"कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 2" के अवतरणों में अंतर

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"कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे<br>
 
"कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे<br>
प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से;<br>
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::प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से;<br>
 
लगता मुझे है, क्यों मनुष्य बच पाता नहीं<br>
 
लगता मुझे है, क्यों मनुष्य बच पाता नहीं<br>
दह्यमान इस पुराचीन अभिशाप से?<br>
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::दह्यमान इस पुराचीन अभिशाप से?<br>
 
और महाभारत की बात क्या? गिराये गये<br>
 
और महाभारत की बात क्या? गिराये गये<br>
जहाँ छल-छद्म से वरण्य वीर आप-से,<br>
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::जहाँ छल-छद्म से वरण्य वीर आप-से,<br>
 
अभिमन्यु-वध औ' सुयोधन का वध हाय,<br>
 
अभिमन्यु-वध औ' सुयोधन का वध हाय,<br>
हममें बचा है यहाँ कौन, किस पाप से?<br><br>
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::हममें बचा है यहाँ कौन, किस पाप से?<br><br>
  
 
"एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है,<br>
 
"एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है,<br>
एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध है;<br>
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::एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध है;<br>
 
जनता हूँ, लड़ना पड़ा था हो विवश, किन्तु,<br>
 
जनता हूँ, लड़ना पड़ा था हो विवश, किन्तु,<br>
लहू-सनी जीत मुझे दीखती अशुद्ध है;<br>
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::लहू-सनी जीत मुझे दीखती अशुद्ध है;<br>
 
ध्वंसजन्य सुख याकि सश्रु दुख शान्तिजन्य,<br>
 
ध्वंसजन्य सुख याकि सश्रु दुख शान्तिजन्य,<br>
ग्यात नहीं, कौन बात नीति के विरुद्ध है;<br>
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::ग्यात नहीं, कौन बात नीति के विरुद्ध है;<br>
 
जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य,<br>
 
जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य,<br>
या महान पाप यहाँ फूटा बन युद्ध है।<br><br>
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::या महान पाप यहाँ फूटा बन युद्ध है।<br><br>
  
 
"सुलभ हुआ है जो किरीट कुरुवंशियों का,<br>
 
"सुलभ हुआ है जो किरीट कुरुवंशियों का,<br>
उसमें प्रचण्ड कोई दाहक अनल है;<br>
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::उसमें प्रचण्ड कोई दाहक अनल है;<br>
 
अभिषेक से क्या पाप मन का धुलेगा कभी?<br>
 
अभिषेक से क्या पाप मन का धुलेगा कभी?<br>
पापियों के हित तीर्थ-वारि हलाहल है;<br>
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::पापियों के हित तीर्थ-वारि हलाहल है;<br>
 
विजय कराल नागिनी-सी डँसती है मुझे,<br>
 
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इससे न जूझने को मेरे पास बल है;<br>
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::इससे न जूझने को मेरे पास बल है;<br>
 
ग्रहन करूँ मैं कैसे? बार-बार सोचता हूँ,<br>
 
ग्रहन करूँ मैं कैसे? बार-बार सोचता हूँ,<br>
राजसुख लोहू-भरी कीच का कमल है।<br><br>
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::राजसुख लोहू-भरी कीच का कमल है।<br><br>
  
 
"बालहीना माता की पुकार कभी आती, और<br>
 
"बालहीना माता की पुकार कभी आती, और<br>
आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का;<br>
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::आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का;<br>
 
आँख पड़ती है जहाँ, हाय, वहीं देखता हूँ<br>
 
आँख पड़ती है जहाँ, हाय, वहीं देखता हूँ<br>
सेंदुर पुँछा हुआ सुहागिनी के भाल का;<br>
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::सेंदुर पुँछा हुआ सुहागिनी के भाल का;<br>
 
बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी,<br>
 
बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी,<br>
तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का;<br>
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::तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का;<br>
 
और सोते-जागते मैं चौंक उठता हूँ, मानो<br>
 
और सोते-जागते मैं चौंक उठता हूँ, मानो<br>
शोणित पुकारता हो अर्जुन के लाल का।<br><br>
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::शोणित पुकारता हो अर्जुन के लाल का।<br><br>
  
 
"जिस दिन समर की अग्नि बुझ शान्त हुई,<br>
 
"जिस दिन समर की अग्नि बुझ शान्त हुई,<br>
एक आग तब से ही जलती है मन में;<br>
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हाय, पितामह, किसी भाँति नहीं देखता हूँ<br>
 
हाय, पितामह, किसी भाँति नहीं देखता हूँ<br>
मुँह दिखलाने योग्य निज को भुवन मे<br>
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::मुँह दिखलाने योग्य निज को भुवन मे<br>
 
ऐसा लगता है, लोग देखते घृणा से मुझे,<br>
 
ऐसा लगता है, लोग देखते घृणा से मुझे,<br>
धिक् सुनता हूँ अपने पै कण-कण में;<br>
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::धिक् सुनता हूँ अपने पै कण-कण में;<br>
 
मानव को देख आँखे आप झुक जातीं, मन<br>
 
मानव को देख आँखे आप झुक जातीं, मन<br>
चाहता अकेला कहीं भाग जाऊँ वन में।<br><br>
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::चाहता अकेला कहीं भाग जाऊँ वन में।<br><br>
  
 
"करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा,<br>
 
"करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा,<br>
नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा;<br>
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::नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा;<br>
 
पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी<br>
 
पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी<br>
कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा;<br>
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::कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा;<br>
 
जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,<br>
 
जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,<br>
छिप तो रहुँगा, दुःख कुछ तो भुलऊँगा;<br>
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::छिप तो रहुँगा, दुःख कुछ तो भुलऊँगा;<br>
 
व्यंग से बिंधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं,<br>
 
व्यंग से बिंधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं,<br>
वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा।"<br><br>
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::वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा।"<br><br>

01:26, 1 अगस्त 2008 का अवतरण

"कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे

प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से;

लगता मुझे है, क्यों मनुष्य बच पाता नहीं

दह्यमान इस पुराचीन अभिशाप से?

और महाभारत की बात क्या? गिराये गये

जहाँ छल-छद्म से वरण्य वीर आप-से,

अभिमन्यु-वध औ' सुयोधन का वध हाय,

हममें बचा है यहाँ कौन, किस पाप से?

"एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है,

एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध है;

जनता हूँ, लड़ना पड़ा था हो विवश, किन्तु,

लहू-सनी जीत मुझे दीखती अशुद्ध है;

ध्वंसजन्य सुख याकि सश्रु दुख शान्तिजन्य,

ग्यात नहीं, कौन बात नीति के विरुद्ध है;

जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य,

या महान पाप यहाँ फूटा बन युद्ध है।

"सुलभ हुआ है जो किरीट कुरुवंशियों का,

उसमें प्रचण्ड कोई दाहक अनल है;

अभिषेक से क्या पाप मन का धुलेगा कभी?

पापियों के हित तीर्थ-वारि हलाहल है;

विजय कराल नागिनी-सी डँसती है मुझे,

इससे न जूझने को मेरे पास बल है;

ग्रहन करूँ मैं कैसे? बार-बार सोचता हूँ,

राजसुख लोहू-भरी कीच का कमल है।

"बालहीना माता की पुकार कभी आती, और

आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का;

आँख पड़ती है जहाँ, हाय, वहीं देखता हूँ

सेंदुर पुँछा हुआ सुहागिनी के भाल का;

बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी,

तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का;

और सोते-जागते मैं चौंक उठता हूँ, मानो

शोणित पुकारता हो अर्जुन के लाल का।

"जिस दिन समर की अग्नि बुझ शान्त हुई,

एक आग तब से ही जलती है मन में;

हाय, पितामह, किसी भाँति नहीं देखता हूँ

मुँह दिखलाने योग्य निज को भुवन मे

ऐसा लगता है, लोग देखते घृणा से मुझे,

धिक् सुनता हूँ अपने पै कण-कण में;

मानव को देख आँखे आप झुक जातीं, मन

चाहता अकेला कहीं भाग जाऊँ वन में।

"करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा,

नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा;

पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी

कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा;

जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,

छिप तो रहुँगा, दुःख कुछ तो भुलऊँगा;

व्यंग से बिंधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं,

वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा।"