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( मधुगीति सं. ४२९, रचना दि. १७ जुलाई २००९ )
 
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'''ए सखि आये जग मन भावन  ( ब्रज )'''
ए सखि आये जग मन भावन  ( ब्रज )
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( मधुगीति सं. ४३४, रचना दि. १७ जुलाई २००९ )
 
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== मैं दीप जलाता हूँ उर में ==
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मधु गीति सं.  ५६७  
 
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मैं दीप जलाता हूँ उर में, मैं राग जगाता हूँ सुर में;  
 
मैं दीप जलाता हूँ उर में, मैं राग जगाता हूँ सुर में;  
 
 
तुम शाश्वत दीप जलादो ना,  तुम निर्झर सुर में गा दो ना.
 
तुम शाश्वत दीप जलादो ना,  तुम निर्झर सुर में गा दो ना.
 
   
 
   
  
मेरी दीवाली तुम में है, मेरे गोवर्धन तुम ही हो;  
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मेरी लक्ष्मी पूजा तुम हो, मेरे गणेश तुम ही तो हो.   
 
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तुम अभिनव नट नागर प्रभु हो, तुम नित्य सनातन चेतन हो;
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तुम ओजस्वी आनन्द अनंत, तुम तेजस्वी त्रैलोक्य प्रवृत.  
 
तुम ओजस्वी आनन्द अनंत, तुम तेजस्वी त्रैलोक्य प्रवृत.  
 
   
 
   
  
 
मैं तुम्हरा ही तो उर दीपक, तुम ही तो मेरे सुर प्रेरक;
 
मैं तुम्हरा ही तो उर दीपक, तुम ही तो मेरे सुर प्रेरक;
 
 
तव कृपा कणों की मैं ज्योति, तुम मम जीवन की चिर ज्योति.
 
तव कृपा कणों की मैं ज्योति, तुम मम जीवन की चिर ज्योति.
 
   
 
   
  
 
तुमरे दीपक हैं सब उर में, तुमरे ही सुर सबके उर में;
 
तुमरे दीपक हैं सब उर में, तुमरे ही सुर सबके उर में;
 
 
मैं गा देता तुमरे सुर में, सब सुन लेते 'मधु' से उर में.  
 
मैं गा देता तुमरे सुर में, सब सुन लेते 'मधु' से उर में.  
 
   
 
   

01:34, 24 अक्टूबर 2009 का अवतरण



मधु मन विहग ( ब्रज )

( मधुगीति सं. ४२९, रचना दि. १७ जुलाई २००९ )
 
'मधु' मन विहग प्रभु व्योम महिं, धावत उड़त उतरत चढत;
थकि जातु कब, अकुलातु कब, हँसि जातु कब, सुधि करत कब.

जानत न मैं, ताड़त न मैं, तरजत न मैं, सुलझत न मैं;
सुर पातु कब, सुख आतु कब, जानत न पाबत प्रात कब.
 
कबहू चहकि, कबहू दहकि, कबहू लुढकि, कब प्रस्फुरत;
मैं सोचि न पावतु बहुत, विधि कि करनि में रत रहत.
 
ना तृप्त हूँ या जगत में, ना सुप्त हूँ जागरण में;
ना लुप्त मैं हो पारहा, ना लिप्त अति हो पारहा.
 
लावण्य मेरी देह में, सब यन्त्र मेरी देह में;
मैं तन्त्र तेरा बन उड़त, मैं मन्त्र बन तव जग फिरत.
 

ए सखि आये जग मन भावन ( ब्रज )

( मधुगीति सं. ४३४, रचना दि. १७ जुलाई २००९ )
 
ए सखि आये जग मन भावन, भाव तरावन, भक्ति जगावन;
प्रीति लगावन, भीति भगावन, योग सिखावन, रीति बतावन.
 
तुम सखि नाचो, गाओ ध्याओ, सत्संगति की बेलि बढ़ाओ;
उपवासों में वास कराओ, कान्हा के उर को फुरकाओ.
 
मैं भावुक अति, प्रेम विरल रति, चाहत जावति उर अन्तर अति;
संतन की गति, योगिन की मति, मोहि नचावति, मन थिरकावति.
 
सारंग नाचतु मोहि बताबतु, मैं माया विच समझि ना पावति;
चातक चाकतु मोर पखा सर, पीताम्बर लखि अम्वर सोहत.
 
तू आनन्द भरी क्यों गावति, ठाड़ी रहति पलक ना झाँपति;
क्या देखी तू भी 'मधु' भावन, क्या रीझी तू भी लखि मोहन.
 

मैं दीप जलाता हूँ उर में
 
मधु गीति सं. ५६७

रचना दि. १६ अक्टूवर, २००९ ( दीपावली की पूर्व संध्या)
 

मैं दीप जलाता हूँ उर में, मैं राग जगाता हूँ सुर में;
तुम शाश्वत दीप जलादो ना, तुम निर्झर सुर में गा दो ना.
 

मेरी दीवाली तुम में है, मेरे गोवर्धन तुम ही हो;
मेरी लक्ष्मी पूजा तुम हो, मेरे गणेश तुम ही तो हो.
 
 
तुम अभिनव नट नागर प्रभु हो, तुम नित्य सनातन चेतन हो;
तुम ओजस्वी आनन्द अनंत, तुम तेजस्वी त्रैलोक्य प्रवृत.
 

मैं तुम्हरा ही तो उर दीपक, तुम ही तो मेरे सुर प्रेरक;
तव कृपा कणों की मैं ज्योति, तुम मम जीवन की चिर ज्योति.
 

तुमरे दीपक हैं सब उर में, तुमरे ही सुर सबके उर में;
मैं गा देता तुमरे सुर में, सब सुन लेते 'मधु' से उर में.
 

गोपाल बघेल 'मधु'

टोरंटो, ओंटारियो, कनाडा

GPBaghel@gmail.com

www.AnandaAnubhuti.com