भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आजादी की पहली वर्षगाँठ / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन |संग्रह=धार के इधर उधर / हरिवंशर…)
 
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
जो खड़ा है तोड़ कारागार की दीवार, मेरा देश है।
+
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
  
काल की गति फेंकती किस पर नहीं अपना अलक्षित पाश है,
+
आज़ादी का आया है पहला जन्म-दिवस,
सिर झुका कर बंधनों को मान जो लेता वही बस दास है,
+
उत्साह उमंगों पर पाला-सा रहा बरस,
थे विदेशी के अपावन पग पड़े जिस दिन हमारी भूमि पर,
+
:::यह उस बच्चे की सालगिरह-सी लगती है
हम उठे विद्रोह की लेकर पताका साक्षी इतिहास है;
+
जिसकी मां उसको जन्मदान करते ही बस
एक ही संघर्ष दाहर से जवाहर तक बराबर है चला,
+
:::कर गई देह का मोह छोड़ स्वर्गप्रयाण।
जो कि सदियों में नहीं बैठा कभी भी हार, मेरा देश है।
+
:::आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
जो खड़ा है तोड़ कारागार की दीवार, मेरा देश है।
+
  
जो कि सेना साज आए चूर मद में हिन्द को करने फ़तह,
+
किस को बापू की नहीं आ रही आज याद,
आज उनके नाम बाकी रह गई है कब्र भर की बस जगह,
+
किसके मन में है आज नहीं जागा विषाद,
किन्तु वह आजाद होकर शान से है विश्व के आगे खड़ा,
+
:::जिसके सबसे ज्यादा श्रम यत्नों से आई
और होता जा रहा हि शक्ति से संपन्न हर शामो-सुबह,
+
आजादी; उसको ही खा बैठा है प्रमाद,
झुक रहे जिसके चरण में पीढ़ियों के गर्व को भूले हुए,
+
:::जिसके शिकार हैं दोनों हिन्दू-मुसलमान।
सैकड़ों राजों-नवाबों के मुकुट-दस्तार, मेरा देश है।
+
:::आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
जो खड़ा है तोड़ कारागार की दीवार, मेरा देश है।
+
  
हम हुए आजाद तो देखा जगत ने एक नूतन रास्ता,
+
कैसे हम उन लाखों को सकते है बिसार,
सैकड़ों सिजदे उसे, जिसने दिया इस पंथ का हमको पता,
+
पुश्तहा-पुश्त की धरती को कर नमस्कार
जबकि नफ़रत का ज़हर फैला हुआ था जातियों के बीच में,
+
:::जो चले काफ़िलों में मीलों के, लिए आस
प्रेम की ताक़त गया बलिदान से अपने जमाने को बता;
+
कोई उनको अपनाएगा बाहें पसार—
मानवों के शान्ति-सुख की खोज में नेतृत्व करने के लिए
+
:::जो भटक रहे अब भी सहते मानापमान,
देखता है एक टक जिसको सकल संसार, मेरा देश है।
+
:::आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
जो खड़ा है तोड़ कारागार की दीवार, मेरा देश है।
+
  
जाँचते उससे हमें जो आज हम हैं, वे हृदय के क्रूर हैं,
+
कश्मीर और हैदराबाद का जन-समाज
हम गुलामी की वसीयत कुछ उठाने के लिए मजबूर हैं,
+
आज़ादी की कीमत देने में लगा आज,
पर हमारी आँख में है स्वप्न ऊँचे आसमानों के जगे,
+
:::है एक व्यक्ति भी जब तक भारत में गुलाम
जानते हम हैं कि अपने लक्ष्य से हम दूर हैं, हम दूर हैं;
+
अपनी स्वतंत्रता का है हमको व्यर्थ नाज़,
बार ये हट जायेंगे, आवाज़ तारों की पड़ेगी कान में,
+
:::स्वाधीन राष्ट्र के देने हैं हमको प्रमाण।
है रहा जिसको परम उज्जवल भविष्य पुकार, मेरा देश है।
+
:::आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
जो खड़ा है तोड़ कारागार की दीवार, मेरा देश है।
+
 
 +
है आज उचित उन वीरों का करना सुमिरन,
 +
जिनके आँसू, जिनके लोहू, जिनके श्रमकण,
 +
:::से हमें मिला है दुनिया में ऐसा अवसर,
 +
हम तान सकें सीना, ऊँची रक्खें गर्दन,
 +
:::आज़ाद कंठ से आज़ादी का करें गान।
 +
:::आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
 +
 
 +
सम्पूर्ण जाति के अन्दर जागे वह विवेक--
 +
जो बिखरे हैं, हो जाएं मिलकर पुनः एक,
 +
:::उच्चादर्शों की ओर बढ़ाए चले पांव
 +
पदमर्दित कर नीचे प्रलोभनों को अनेक,
 +
:::हो सकें साधनाओं से ऐसे शक्तिमान,
 +
:::दे सकें संकटापन्न विश्व को अभयदान।
 +
:::आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
 
</poem>
 
</poem>

01:49, 30 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।

आज़ादी का आया है पहला जन्म-दिवस,
उत्साह उमंगों पर पाला-सा रहा बरस,
यह उस बच्चे की सालगिरह-सी लगती है
जिसकी मां उसको जन्मदान करते ही बस
कर गई देह का मोह छोड़ स्वर्गप्रयाण।
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।

किस को बापू की नहीं आ रही आज याद,
किसके मन में है आज नहीं जागा विषाद,
जिसके सबसे ज्यादा श्रम यत्नों से आई
आजादी; उसको ही खा बैठा है प्रमाद,
जिसके शिकार हैं दोनों हिन्दू-मुसलमान।
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।

कैसे हम उन लाखों को सकते है बिसार,
पुश्तहा-पुश्त की धरती को कर नमस्कार
जो चले काफ़िलों में मीलों के, लिए आस
कोई उनको अपनाएगा बाहें पसार—
जो भटक रहे अब भी सहते मानापमान,
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।

कश्मीर और हैदराबाद का जन-समाज
आज़ादी की कीमत देने में लगा आज,
है एक व्यक्ति भी जब तक भारत में गुलाम
अपनी स्वतंत्रता का है हमको व्यर्थ नाज़,
स्वाधीन राष्ट्र के देने हैं हमको प्रमाण।
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।

है आज उचित उन वीरों का करना सुमिरन,
जिनके आँसू, जिनके लोहू, जिनके श्रमकण,
से हमें मिला है दुनिया में ऐसा अवसर,
हम तान सकें सीना, ऊँची रक्खें गर्दन,
आज़ाद कंठ से आज़ादी का करें गान।
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।

सम्पूर्ण जाति के अन्दर जागे वह विवेक--
जो बिखरे हैं, हो जाएं मिलकर पुनः एक,
उच्चादर्शों की ओर बढ़ाए चले पांव
पदमर्दित कर नीचे प्रलोभनों को अनेक,
हो सकें साधनाओं से ऐसे शक्तिमान,
दे सकें संकटापन्न विश्व को अभयदान।
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।